पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८

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राष्ट्रभाषा पर विचार के विकास में जो बाधा उपस्थित की वह पनपकर उर्दू के रूप में फूल उठी और उसका फल पाकिस्तान निकला। अब कहाँ हिंद और कहाँ हिन्दुस्तान ! बस अब तो पाकिस्तान ही दिखाई दे रहा है। तो क्या पाकिस्तान अरबी शब्द है ? कुरानमजीद से उसका भी कोई नाता है ? जी नहीं। तो फिर हमारा प्रश्न है 'दारुलइसलाम' क्यों नहीं, पाकिस्तान क्यों ? 'अल्लाह' क्यों नहीं खुदा' क्यों, 'सलात' क्यों नहीं 'नमाज' क्यों ? 'सौम' क्यों नहीं 'रोजा' क्यों ? इस क्यों का जवाब दो तो राष्ट्रभाषा के विषय में मुँह खोलो अन्यथा बादशाहत का स्वपन देखते फिरो। राष्ट्रभाषा ने कभी किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया, यदि वह कुछ लेकर आया तो भारत की सभी भाषाओं में उसका स्वागत हुआ। संस्कृत में न जाने कितने शब्द प्रचलित हो गए। भाषा का कोष उनसे भी भरा। पर परदेशी जी इतने से न भरा। उसने देखा कि शाही गई, शाही शान गई, और गई शाही बोली ? अब जो कुछ बच रहा है वह है दीन और दुनिया । दीन को अरबी का सहारा था, है और रहेगा भी। इसलाम अरबी को सर्वथा भुला नहीं सकता। पर कोई भी सच्चा हिंदी मुसलमान हिंदी को छोड़कर फारसी को अपनाने क्यों लगा ? आज ईरान भी तो उससे कोसों दूर जा पड़ा है। आज ईरान की भाषा खरी ईरानी हो रही है-फारसी का नाम तक नहीं लिया जाता । आज तुर्की की भाषा शुद्ध वा निपट तुर्की बनाई जा रही है-अरबी की कोई बात भी नहीं पूछता । वह मजब की चीज हो सकती राष्ट्र की भाषा नहीं। सारांश यह कि वहाँ आसमान को जमीन से, दीन को दुनिया से, अलग करके देखा जा रहा