पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१७९

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राष्ट्रभाषाव संमेलन १६६ कर चुकी है । राष्ट्रभाषा का कार्य आखिर अहिंदी प्रांतों में करना है। दक्षिण के चार-आंध्र, कर्नाटक, तमिल और केरल प्रांत पश्चिम के चार-सिंध, महाराष्ट्र, अंबई और गुजरात. और पूर्व के तीन-आसाम, बंगाल और उड़ीसा-कुल ये ग्यारह प्रत राष्ट्र- भाषा के प्रचार के क्षेत्र समझे जाते हैं। इन प्रांतों के प्रचार के कार्य को महात्माजी का नेतृत्व प्राप्त है । उनके रहते कोई उनसे वढ़कर इस कार्य का नेतृत्व कर भी नहीं सकता और और करे भी तो वह सर्वमान्य भी नहीं हो सकता। संमेलन के अधिकारियों को भी यह बात अच्छी तरह मालूम है। गत दिसंबर में पंजाब प्रांत के अबोहर में संमेलन का जो अधिवेशन हुआ उसमें संमेलन ने एक प्रस्ताव में भाषासंबंधी अपनी नीति का स्पष्टीकरण किया है। उस प्रस्ताव के कुछ अंश वास्तव में उर्दू भी हिन्दी से उत्पन्न अरबी फारसी मिश्रित एक रूप है । हिंदी शब्द के भीतर ऐतिहासिक दृष्टि से उर्दू का समावेश है। किंतु उर्दू की साहित्यिक शैली जो थोड़े से श्रादसियों में सीमित है-- हिंदी से इस समय इतनी विभिन्न हो गई है कि उसकी पृथक् स्थिति संमेलन स्वीकार करता है और हिंदी की शैली से उसे भिन्न मानता है। हिंदुस्तानी या हिंदुस्थानी शब्द का प्रयोग मुख्यतः इसीलिये हुअा करता है कि वह देशी शब्दव्यवहार से प्रभावित हिंदी शैली तथा अरबी-फारसी शैलीव्यवहार से प्रभावित उर्दू शैली दोनों का एक शब्द से, एक समय में निर्देश करे । कांग्रेस, हिंदुस्तानी एकाडमी और कुछ गवर्मेंट विभागों में इसी अर्थ में इसका प्रयोग हुन्ना है और होता है । कुछ लोग इस शब्द का प्रयोग उस प्रकार की भाषा के लिये भी करते हैं जिसमें हिंदी और उर्दू शैलियों का भी मिश्रण हो ।”