राष्ट्रभाषा पर विचार तक किसी संप्रदाय ने उसका बहिष्कार किया हो अथवा किसी संप्रदाय ने उसे क्कैद कर रखा हो इसलिये कोशिश यह होनी चाहिए कि राष्ट्रभाषा सभी की हो, सभी उसके हों। गत २५ वर्षों में राष्ट्रभाषा प्रचार का कार्य हिंदी साहित्य- संमेलन के सुपुर्द रहा। महात्मा गाँधी का, जो भारत के राष्ट्रीय युग के प्रथम व प्रधान प्रवर्तक हैं, सहयोग उक्त संमेलन को प्राप्त होता रहा। उनके सहयोग से संमेलन के कार्य पार लग गए । आज वह हिंदुस्तान में एक व्यापक संस्था हो गई है। स्वयं गांधीजी भी दो बार-१६१८ में एक बार, और १६३५ में दूसरी बार-इंदौर में उसके अध्यक्ष रह चुके हैं। उन्होंने अपने तन मन से संमेलन में जीवनसंचार तो कराया ही, साथ ही उसे भरपूर धन भी दिलाया। अगर महात्माजी का सहयोग संमेलन को प्राप्त नहीं हाता तो संमेलन के कार्य का क्या रूप होता, इसकी कल्पना करना आसान है। साहित्यसंमेलन का यद्यपि प्रधान कार्य साहित्य-निर्माण का था फिर भी प्रचारकार्य ने उससे ज्यादा महत्त्व पाया। उसकी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ भाषा के प्रचार की तुलना में बहुत ही कम रहीं। इस सारे प्रचार के कार्य को महात्माजी ने और उनके अनु- यायियों ने बढ़ाया है। दक्षिणी-भारत-हिंदी-प्रचार सभा की नींव संमेलन के द्वारा महात्माजी ने डलवाई और तब से लेकर अब तक इस सभा के वे पोषक और जीवन-संचारक रहे हैं । राष्ट्रभाषा- प्रचार समिति, वर्धा की नींव उन्हीं के प्रताप के बल पर पड़ी थी। आज यह समिति भी बड़े पैमाने पर अपने संगठन का निर्माण ३-किसी संप्रदाय-विशेष के बहिष्कार से उसकी अपूर्णता सिद्ध नहीं होती। हाँ, अंग-विशेष के अभाव में ऐसा माना जा सकता है।
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