पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१७७

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राष्ट्रभाषा व संमेलन ६७ लाती है। चूंकि नागरी वर्णमाला दक्षिण के लोगों को सुलभ थी, इसलिये दक्षिण-भारत-हिंदी-प्रचार सभा ने अधिकाधिक नागरी से ही काम लिया है। जहाँ तक शैली व शब्दावली का सवाल है, सभा ने दोनों को प्रचारित करने की कोशिश की। चूंकि सभा का मुख्य उद्दश्य बोलचाल की भाषा का प्रचार करना था इसलिये संस्कृत व साहित्यसंबंधी कोई खास प्रश्न उसके सामने नहीं प्राया। फलतः आज दक्षिण भारत में जिस हिंदी का प्रचार हो रहा है वह इस लायक है कि पंजाब और युक्तप्रांत में भी काम चल सके और विहार और सी. पी. में भी। सभा ने और दक्षिण के राष्ट्रभाषा-प्रेमियों ने राष्ट्रभाषा के सच्चे स्वरूप और उसकी उपयो- गिता को अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया है। राष्ट्रभाग का एकमात्र उद्देश्य राष्ट्र-संगठन है, प्रांतों को एक दूसरे से जोड़ना है, सभी वर्गों के लोगों को मिलाना है, राष्ट्रीय जीवन से सांप्रदायिकता को हटाना है राष्ट्रीय संस्कृति और साहित्य का निर्माण करना है। राष्ट्रीय जीवन में हिंदू आयेंगे, मुसलमान भी आयेंगे, पारसी आयेंगे और ईसाई भी वह किसी एक खास धर्मावलंबी व संप्रदायवादी की ही बपौती नहीं रह सकता है इसलिये राष्ट्रभाषा के विकास में भी सभी धर्मों और संप्रदायों का हाथ रहेगा। वह उस हद तक हमेशा अपूर्ण रहेगा जिस हद २-यदि प्रस्तुत लेख उसी हिंदी में लिखा गया है तो उससे हमारा कोई विरोध नहीं। हम उसे राष्ट्रभाषा मानने को सहर्ष तैयार हैं । पर दक्षिण भारत को इस बात का पता होना चाहिए कि वह हिंदुस्तानी नहीं जिसे फारसी लिपि में लिख देने से यार लोग उसे उर्दू समझ लें।