पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१७६

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१४----राष्ट्रभाषा व संमेलन [श्री मो० सत्यनारायण.] हमारी राष्ट्रभाषा का नाम हिंदी होना चाहिए या हिंदुस्तानी इस प्रश्न को लेकर आये दिन बड़ा वाद-विवाद होता आ रहा है। १९३८ में जब पूज्य महात्माजी ने हिंदी को राष्ट्र भाषा माना और उसके प्रचार के लिये नींव डाली तब हिंदी व हिंदुस्तानी का श्रापस में कोई झगड़ा नहीं था। उस समय में हिंदुस्तानी शब्द था और उससे भी हिंदी का ही अर्थ निकलता था। दक्षिण भारत में गत २४ सालों में हिंदी का जो प्रचार हुआ है इस प्रचार में स्पष्ट कहा गया है कि हिंदी से मतलब उस भाषा से है जिसे उत्तर के सभी वर्ग के लोग समझते व बोलते हैं और जो नागरी और फारसी लिपि में लिखी जाती है। जब वह फारसी में लिखी जाती है तो उर्दू कहलाती है और नागरी में लिखी जाती है तो हिंदी कह- १-यदि वस्तुस्थिति यही रही है तो दक्षिण भारत में भ्रम का प्रचार किया गया है, कोई हिंदी फारसी लिपि में लिखी जाने के कारण ही उर्दू नहीं कहलाती। हिंदी के अनेक मुसलमान कवियों ने 'भाखा' (भाषा) को भी फारसी लिपि में लिखा है पर उसे कभी भूलकर भी उर्दू नहीं कहा है। हाँ, हिंदी, हिंदवी वा हिंदुई अवश्य कहा है। भाषा और लिपि का संबंध शरीर और आच्छादन का है। आच्छादन के कारण नाम नहीं बदलता; हाँ देखनेवाले को कभी कभी भ्रम अवश्य हो जाता है। हमें भाषा और लिपि के प्रश्न पर अलग अलग विचार करना चाहिए। अबोहर अधिवेशन ने बहुत कुछ यही किया ।