पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१७५

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उर्दू का अभिमान बाशिन्दों ने एख्तयार कर रक्खी है | हमारे जरीफुल तबा दोस्तों ने मज़ाक से इसका नाम पुड़दू रख दिया। (फरहंगे आसक्रिया; सबब तालीफ) काफिर हिंदुओं को पूछता ही कौन है ? अरे! किताबी ईसाइयों और इसलामी 'नवमुसलिम भाइयों' तक की भी कभी हिंद होने के नाते उर्दू में यह गत बनी ! हम डाक्टर ताराचंद और उन जैसे विचार, नहीं नहीं 'धुनधारी' वाले प्राणी से कुछ नहीं कहना चाहते क्योंकि हम भली भांति जानते हैं कि वाँस पर चन्दन का प्रभाव नहीं पड़ता और कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती। पर हिंदी ईसाइयों और हिंदी नवमुत्तलिम भाइयों से इतना अवश्य कहना चाहते हैं कि यदि कुछ भी तुम्हें अपनी तथा अपने देश की लाज है अपनी हिंदी को अवश्य अपनाओ और उस उर्दू को दूर से नमस्कार करो जो सन् ११५७ व ५८ हि० ( सन् १७४४-५ ई०) में बिलगाव और इस देश के अपमान के लिये ईरानी-तूरानी किंवा परदेशी मुसलमानों द्वारा गढ़ी गई और जो आज भी हमारी भूल के कारण हम पर हावी हो हमारी छाती पर मूंग दल रही है, और देशी मुसलमानों का भी धोर अपमान कर रही है । है डाक्टर ताराचंद्र को इसकी खबर ? 'या बढ़े अँधेरो होय' को ही चरितार्थ कर रहे हैं ? ---