पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१७४

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राष्ट्रभाषा पर विचार और जबानों से अलग एक नई ज़बान पैदा की जिसका नाम उर्दू रक्खा उर्दू क्यों रखा, कारण स्पष्ट है । वह उर्दू की भाषा जो थी। 'खुशबयानों' के विषय में सैयद इंशा ने जो कुछ लिखा है उसे पढ़ो तो पता चले कि हिंदू तो क्या, हिंदी मुसलमान तो क्या, बारहा के सैयद भी 'खुशवयान नहीं गिने गए। कारण यही कि वे 'हिंदुस्तानी दल' के साथ थे और तुरानी' दल' से बराबर लोहा लेते थे। 'खुशबयानों' के बारे में संक्षेप में जान लें कि- यह लोग तुर्कीउन्नस्ल थे या फ़ारसीउन्नस्ल या अरबीउन्नस्ल, यह हिंदो की सुताबकत किस तरह कर सकते थे ? (फरहंगे आपफिया, मोकदमा) अब आप ही कहो, और सच कहो, दिल पर हाथ रखकर कहो, और मुँह खोल कर कहो, सचमुच कहो कि बात क्या है। कहते हो, फिर भी कहते हो- ५) श्राज भी उसका हक है कि वह राष्ट्रभाषा यानी हिंदुस्तान के सभी निवासियों की बिला संप्रदायी तफ्रीक के श्राम भाषा मानी जाय। कहो । किस मुँह से, और किससे क्या बोल रहे हो ? उधर से तो खम ठोंककर डंके की चोट पर कहा जा रहा है-- हम अपनी ज़बान को मरहठीबाज़ी, लावनीबाज़ों की ज़बान, धोबियों के खंड, जाहिल खयालबन्दों के खयाल, टेसू के राग यानी बेसर व पा अल्फाज़ का मजमूना बनाना कभी नहीं चाहते और न उस अाज़दानः उर्दू को ही पसंद करते हैं जो हिंदुस्तान के ईसाइयों, नवमु- सलिम भाइयों, ताज़ः विलायत साहब लोगों, खानसामाओं, खिदमत- पारों, पूरब के मनहियों कैम्पब्वायों और छावनियों के सतबेझड़े