पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१७१

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उर्दू का अभिमान १६१ दरी बिला अज़दह दवाज़दह साल अक्सर अल्फ़ाज़ रा अज़ा नज़र आन्दाख्त: लिसाने अरबी व जुनाने फारसी कि करीबुल फहम व कसीक्ल इस्तैमाल बाशद व रोज़मर्रः देहली की मिज़ायाने रिन्द दर मुहावरः दारन्द मंजूर दाश्तः । (सौदा, अंजुमनए तरक्कीए उर्दू, देहली, १६३६ ई०, पृ० २६ पर अवतरित) शाह हातिम का स्पष्ट कहना है कि इस काल में ग्यारह बारह वर्ष तक बहुत से शब्दों को त्यागकर अरबी व फारसी के शब्द जो सुगमता से समझ में आते हैं और प्रयोग में अधिक आते हैं और दिल्ली के रोजमर्रा को कि हिंद के मिर्जाओं (मुगल राजकुमारों) और फसीह सूफियों के व्यवहार में रहे हैं, मंजूर किया गया है। शाह हातिम ने यहीं अपने आप ही यह भी खोलकर कह दिया है-सिवाय श्रां ज़वाने हर दवार ता व हिंदवी कि श्रां रा भाका गोयन्द मौकूफ करदः । ( वही) अर्थात् इसके अतिरिक्त चारों ओर की भाषा यहाँ तक कि हिंदवी को जिसे भाषा कहते हैं छोड़ दिया। डाक्टर ताराचन्द क्या कहते हैं इसे कौन कहे; परंतु उनकी दशा ठीक वहीं है कि डाक्टर कहता है-रोगी मर गया, और रोगी कहता है-मैं जीवित हूँ । अब आप ही कहें सच्चा कौन है ? रोगी या डाक्टर ? देखिए तो सही, हातिम स्वयं कहते हैं कि हमने अड़ोस-पड़ोस की भाषा यहाँ तक कि हिंदी को भी छोड़ दिया और ग्रहण किया ' मिर्जायाने हिंदी व फसीहाने रिंद' अर्थात् 'उर्दू की बोली' को और उसमें ला दिया अरबी-फारसी के मुहावरों को, और इधर हमारे डाक्टर ताराचन्द न जाने किस डाक्टरी