पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१७०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६० राष्ट्रभाषा पर विचार देखा ? क्या दिखाई दिया ? यही न कि ब्रजभाषा ही शिष्ट, समृद्ध तथा व्यापक काव्य भाषा है और उसी में कोई 'मीरजा; भी अपना मुँह खोल लोगों के जी में पैठते हैं ? अरे यह वह समय है जब औरंगजेब सा कट्टर गाजी भी 'सुधारस' और 'एसना विलास' का भक्त है किसी अरबी का कदापि नहीं, विशेष जान- कारी के लिए पढ़िए इस जन की 'मुगल बादशाहों की हिंदी को। संभव है क्या, निश्चित ही है कि आपने 'मीरजा खां' के उक्त व्याकरण को नहीं पढ़ा और नहीं पढ़ा किसी ऐसे ग्रंथ को जिसमें उई की हकीकत खोल कर बताई गई हो। तो भी आपने 'खान आरजू' का नाम तो अवश्य सुना होगा । कारण यह कि हिंदुस्तान के फारसी दानों में, तीन में वह भी एक हैं और हैं उर्द के उस्ताद भी। सुना ? उनकी उर्दू धारणा को देखकर श्री हाफिज़ महमूद शेरानी साहब भी दंग रह जाते और आपको बताने के लिये ही मानों लिख जाते हैं- सब से ज्यादा जिस बात से ताज्जुब होता है यह है कि खाना देहली की ज़बान और उर्दू को भी वक़त की निगाह से नहीं देखते । उनके नजदीक हिंदुस्तानी ज़बानों में सबसे ज्यादा शाइस्ता और मुहज्ज़ब ज़बान ग्वालियारी है। (ओरियंटल कालेज मैगजीन, लाहौर, नवम्बर सन् १९३१ ई०, पृ० १०) कहने की बात नहीं कि खान आरजू की ग्वालियारी ब्रजभाषा से भिन्न नहीं। प्रसंगवश इतना और जान लें कि खान आरजू का निधन सन् ११६६ हि० में हुआ और इसी सन् में उर्दू के आदि उस्ताद मियां हातिम ने अपने 'दीवानजादा' के 'दीवाचा' में स्पष्ट लिखा-