पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१७

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19 राष्ट्रभाषा संस्कृत मर गई ? नहीं, कदापि नहीं । तुलसी ने 'रामचरितमानस' में लोकभाषा के साथ ही साथ देवभाषा का भी विधान किया है। ऊपर की वंदना में गिरा, जल, वीचि, सम, भिन्न, सीता, राम, पद, परम, प्रिय, खिन्न सभी तो शुद्ध संस्कृत हैं। केवल छंद के अनुरोध से अर्थ को 'अरथ' कर दिया है, अन्यथा वह भी संस्कृत ही है। अब यदि यह संस्कृत मरी भाषा है तो जीवन किसे कहते हैं ? हम तो नहीं समझते कि संस्कृत पर धूल उड़ानेवाले कुछ जानते भी हैं अथवा राष्ट्रभाषा के प्रसंग में संस्कृत के साथ अरवी को ला खड़ा करनेवाले कहीं कुछ बुद्धि वा विवेक भी रखते हैं। अरची का तो भारतीय भाषाओं से उतना भी लगाव नहीं जितना कि अँगरेजी का है। हाँ, ईरानी पड़ोस में बस सकती है पर अरबी कदापि नहीं । जब उर्दू 'नवी की जवान' बताई जा रही है तब तो और भी नहीं। क्योंकि नबी देशभाषा के पुजारी थे, कुछ विदेशभाषा के प्रचारक नहीं। अरवी से हमारे देश का जो इसलामी नाता है उस पर आगे चलकर विचार होगा। अभी कहना यह है कि इसलाम के आ जाने से कोई नई जाति भारत में नहीं आ गई। जिनके बाप-दादे पहले आततायी के रूप में आते थे वे ही अब मुसलिम के रूप में आने लगे। अंतर इतना अवश्य हो गया कि पहले रसते बसले यहीं के हो जाते थे और अब यहाँ के लोगों को भी यहाँ से उदार- कर कहीं और का बताने लगे। कहने का तात्पर्य यह कि जहाँ धीरे धीरे अपने को राष्ट्र का अंग बना लेते थे, अब प्रमाददश राष्ट्र के कोढ़ के रूप में सामने आने लगे और जब अपनी सारी सत्ता खो बैठे तब भाषा के सिर हो रहे और इसलाम की ओट में पेट चलाने लगे। पेट-पूजा की चिंता और शाही शान ने राष्ट्रभाषा