पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१६८

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राष्ट्रभाषा पर विचार हैं और हैं भी इस देश में मुसलमानों में आधे से अधिक । परंतु 'लाला भाइयों' और 'दीगर कलम कसाइयों' को न भूलिए। कारण कि उनके विषय में उर्दू के इमाम डाक्टर मौलवी अब्दुल हक का कहना है- उस वक्त के किसी हिंदू मुसन्निा की किताब को उठाकर देखिए । वही तर्ज तहरीर और वही असलूवे बयान है। इब्नदा में बिस्मिल्लाह लिखता है। हम्द व नात व मनकबत से शुरू करता है। शरई हस्तेलाहात तो क्या, हदीस व नम कुरान तक बेतकल्लुफ़ लिख जाता है । इन किताबों के मुताला से किसी तरह मालूम नहीं हो सकता कि यह किसी मुसलमान की लिखी हुई नहीं, ( उर्दू रिसाला, अंजुमाने तरक्कीए उर्दू, देहली, सन् १९३३ ई०, पृ० १४ ) कहो तो सही मामला क्या है ? यह हिंदू-मुसलिम मेल-जोल है वा हिंदुत्व का विनाश ? क्या इसी को देखने के लिये पानी पी पी कर हिंदु को सराप रहे हो और इधर उधर की बात सुना हिंदुस्तान को शिष्य गुड़ना चाहते हो ? यदि नहीं, तो माजरा क्या है ? अरे ! कुछ तो समझ बूझ, देख-सुन कर लिखो। हिंदी और संस्कृत को पढ़ो गुनो और फिर कहो कि पीड़ा क्या है और हिंदू-मुसलिम का मिला-जुला रूप क्या है । उर्दू ? फिर वही बात ? अच्छा सिद्ध करो तो दिखाओ देखें कितने पानी में हो। अथवा व्यर्थ ही पानी पीट अपना पानी गँवा रहे हो। कहते और बड़े तपाक से कहते हो कि (४) 'पंद्रहवीं सदी से अठरहवीं सदी के अखीर तक उर्दू ही हिंदू-मुसलमान शिष्टों की दुनिया, हिंद की मुसलमानी दुनिया भी इसके विषय में क्या कहती है । सुनो । मुहम्मदशाह 'रंगीला' का दरबार लगा है और कोई 'सुजान' गा रही है--