पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१६७

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उर्दू का अभिमान फिर उसको एक ऐसे दंग पर ढाल दिया कि उसका नाम ही अलग उर्दू की भाषा रख लिया। मौलाना 'आगाह के कहने का यह जो सारांश दिया गया है उसको देखते ही प्रकट हो जाता है कि सचमुच उर्दू हिंदी पर से ही बनी और वह थी अथवा आज है भी वस्तुतः 'उर्दू' की ही भाषा | हिंदी अपनी परम्परा को छोड़ कर उर्दू की भाषा वा उर्दू बनी तो कोई बात नहीं। उर्दू के लोग शौक से उसे मुँह लगाएँ ! पर राष्ट्र के लोग तो इसी नाते उसे. अपनाने से रहे। किसी पंडितमानी राष्ट्रबंधु सुंदर तारा की हम नहीं कहते। हम तो देशाभिमानी देशी और भाषाभिमानी भाई की कहते हैं। कहते हो (३) उर्दू हिंदू मुसलमानों के मेल-जोल से बनी है और कहते हो कि उसके साहित्य के निर्माण में हिंदुओं का बड़ा हिस्सा है। होगा, उस बड़े हिस्से में आप का कितना है तनिक इसे भी तो बता देते अथवा किसी 'आबे हयात' में ही खोलकर अपने जैसों की कुछ दिखा देते। अरे ! सुनो, देखो और समझो कि यह बड़ा हिस्सा वहाँ किस दृष्टि से देखा जा रहा है। 'फरहंगे आसफिया' का नाम तो सुना है न ? उसको उठाकर नहीं तो मंगा कर देखो और कहो कि 'सवब तालीफ' के इस वाक्य का अर्थ क्या है - धुनिए, जुलाहे, तेली, संबोली, कसवाती, देहाती जितने खेत के लिखे पड़े थे सब लठ ले ले के लुगत निगार फरहंग नबीस बन गये। गो देहली बा लखनऊ को आँख खोल कर न देखा हो मगर हमारे पहले एडीशन ने लाला भाइयों से लेकर दीगर कलम कसाइयों तक को मोवल्लिफ मुसन्निफ़ बना दिया (जिल्द अव्वल, पृ०२८) धुनिए, जुलाहे को तो जाने दीजिए क्योंकि वे मोमिन मुसलमान'