पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१६४

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राष्ट्रभाषा पर विचार , निदान ज़बान उर्दू की मँजते मैंजते ऐसी मँजी कि किसी शहर की बोली उससे टक्कर नहीं खाती। अथवा 'उर्दू की बोली' के लिये सैयदाइंशा अल्लाह खाँ की यह ललकार वा फटकार सुनो--- "मुश्फ़िक़ कड़ी कमान को कडरी न बोलिए चिल्ला के मुफ्त तीर मलामत न खाइए। उर्दू की बोली है यह ? भला खाइए कसम , इस बात पर अब आप ही मसहफ़ उठाइए।" वस, जिस 'उर्दू को बोली' में उस्ताद 'मसहफ़ी' भी खरे न उतरे उसे डाक्टर ताराचन्द अपनी 'मादरी जबान' समझते रहें पर उर्दू की 'सनद' इस जन्म में तो हासिल नहीं कर सकते, अगले की राम जानें। 'हाँ, तो उर्दू की बोली' का "माखन' यानी स्रोत है शाह- जहानाबाद यानी दिल्ली का लाल किला और उसी का नाम है 'उर्दू-ए-मुअल्ला' यानी संक्षेप में उर्दू। क्योंकि मुंशी मीर अली अफसोस फरमाते हैं-- मैंने यूँ इसकी तारीफ की है उर्दू की बोली का माखज यही । (आराइशे मोहफिल) अथवा इधर उधर अधिक भटकने से लाभ क्या ? सैयद इंशा ने तो अपनी अद्वितीय पुस्तक 'चरियाए लताफ़त' में खोलकर स्पष्ट लिख ही दिया है- ई मजमा हरजा कि बिरसद औलाद हा दिल्लीवाल गुफ्तः शवन्द व महलः ईशा महलः अहल देहली। व अगर तमाय शहर रा -