पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१६२

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१३-उर्दू का अभिमान डाक्टर ताराचन्द राजनीति के पंडित, हिंदी के प्रतिनिधि, हिंदुस्तानी के प्रेमी और उर्दू के भक्त हैं। समय समय पर जिस जिस रूप में जिस जिस मुंह से, जो जो कहते रहते हैं सो सो तो सदा चलता ही रहेगा मुंह रहते मला उनकी मुंहजोरी को कौन रोक सकता है ? परंतु तो भी कहना तो यही है कि भैया ! कुछ पढ़ कर लिखा करो। बचपन में जो पाठ पढ़ा था वह जीवन का नहीं जीविका का पाठ था। सो उससे अब राष्ट्र का काम नहीं चल सकता। सोचो तो सही 'ई' स्खयालस्त ओ मुहालस्त जो 'जुनूं कहाँ की भाषा है और 'विश्व वाणी' न सही 'विश्व की वाणी' में इसकी गणना कहाँ की बोली में होगी? आप की बोली यह भले ही हो पर आपके घर वा देश की तो यह बोली नहीं। चलते-चलते इस बोली ने तो आपका पता बता दिया कि वस्तुतः आप हो किस खेत की मूली और चाहते क्यों हो उर्दू को राष्ट्र- भाषा। परंतु नहीं, आपके बहाने हमें राष्ट्र को यह भी तो बता देना है कि वास्तव में आज आप जो ओट रहे हो उसका रहस्य क्या है। सुनो, आप ही तो कहते हो- अंग्रेजी में एक कहावत है कि झूठ को बार बार दोहराने से वह सच प्रतीत होने लगता आपने तो अंगरेजी के आधार पर प्रतीति की ही बात कही पर यहाँ संस्कृत में यह दिखाया गया है कि किस प्रकार चार ठगों ने मिलकर एक ब्राह्मण देवता को ठग लिया और उनके बछवा को बकरा ठहरा दिया। लो देखो, पढ़ो, गुनो और कहो तो सही