पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१६०

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राष्ट्रभाषा पर विचार भाँति परिचित है और यह अच्छी तरह जानती भी है कि उसमें कैंसे और किस कैंडे के जीव जानबूझकर भरे गये हैं, तभी तो आगे बढ़कर सफाई देती है कि उसके तमदुन से श्रादाब अर्ज का कोई संबंध नहीं! माना कि बाद में उसने स्पष्ट कह दिया है कि सरकारी मुहकमों का कोई अलग तमदुन नहीं होता पर इससे हमारे अर्थ में कोई गड़बड़ी नहीं होती, बल्कि वह और भी पक्का हो जाता है कि यहाँ भी हमारी जबान' के सामने रेडियो के मुसलमान हाकिम ही हैं जिनकी वकालत करना वह अपना धर्म समझती है। श्रीसंपूर्णानन्द भी तो 'श्रादाब अर्ज' को किसी की संस्कृति नहीं समझते, तभी तो कहते हैं कि रेडियो का अनाउन्सर कभी नमस्कार नहीं करता, उसकी संस्कृति में आदाब अर्ज करना ही शिष्टाचार है। बात तो शिष्टाचार की है पर उर्दू के हिमायती दुहाई देते हैं 'मजहब' और 'तमवुन' की ! रेडियो का अनाउन्सर क्यों नमस्कार का नाम भी नहीं लेता और नित्य आदाब अर्ज की रट लगाता है ? कारण यह है कि वह इसी को अपनी 'संस्कृति' का 'शिष्टाचार' समझता है। उसकी संस्कृति है क्या ? राष्ट्र के उर्दू परस्त पुजारी कहते हैं कि हिंदुस्तानी-वह हिंदुस्तानी जिसमें हिंदी का नाम भी नहीं है। आदाब अर्ज में हिंदीपन कहाँ है ? यदि हिंदुत्व और हिंदीत्व का विनाश ही हिंदुस्तानी का परम लक्ष्य है तो यह आदाब अर्ज रेडियो को मुबारक हो। हम तो गँवारू बोली में इसे 'आधाबरद' ही समझते हैं, हमें ऐसी आधा बैली हिंदुस्तानी नहीं चाहिए। हाँ, तो आदाब अर्ज का संबंध न तो अरब से है और न ईरान से, न तो मजहब से है और न इसलामी तमदुन से।