पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१६

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w राष्ट्रभाषा पर विचार चलित रूप को राष्ट्रभाषा के योग्य समझता है । जो हो, भारत राष्ट्रभाषा संस्कृत को छोड़कर जी नहीं सकता। प्राण-रहित शरीर और वारि-रहित नदी की जो स्थिति है वही संस्कृत-रहित भारत की अवस्था है । हाँ, जिनकी दृष्टि में इंडिया' के पहले कोई 'इंडिया' अथवा 'हिंदुस्तान' के पहले कोई 'हिंदुस्तान' ही नहीं था वे कुछ भी बकते रहें, हम उनकी तनिक भी चिन्ता नहीं करते पर हम तड़प उठते हैं यह देखकर कि हमारे संस्कृताभिमानी विश्वविद्यालय में छात्रों को पढ़ाया जाता है-"जब समस्त भारत की राष्ट्रभाषा संस्कृत थी, उस समय उसका नाम 'भारती' था। यह भारत की भाषा' या उसकी अंतरात्मा 'सरस्वती' थी। वह भाषा अपने वाङ्मय या 'सरस्वती' को वहन या धारण करने की इतनी प्रकाम क्षमता रखती थी कि उपासकों ने भाषा और भाव-शरीर और आत्मा-दोनों की एकता मानकर विग्रह में ही देवता की प्रतिष्ठा कर ली।” ('गद्यभारती' की भूमिका का 'राम')। इस प्रकार के वागजाल के द्वारा चाहे संस्कृत शब्दों की जितनी मँडैती की जाय पर इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि संस्कृत भूत की बात हो गई। अब न तो वह भारत की भारती रही और न उसकी अंतरात्मा 'सरस्वती । तो क्या हिंदू संस्कृति का उद्धार और भारत का अभ्युदय इसी थी' से होगा ? क्या भाषाशास्त्र का सारा सार इसी थी' में छिपा है ? नहीं, अब इसका भरपूर विरोध होना चाहिए और अपने होनहार विद्यार्थियों को इस प्रकार के कुपाठ से सर्वथा बचाना चाहिए ! सच पूछिए तो हमारे राष्ट्र का विनाश जितना कुपढ़ हाथों से हो रहा है उतना अपढ़ लोगां से नहीं। भारत की भाषा आज भी भारती ही है-संस्कृत न सही भाषा तो है। भला कौन कह सकता है कि तुलसी के रहते रहते 'भाषा' तो रह गई पर