पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१५९

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रेडियो का आदाब अर्ज १४६ का साथी भी है। पर रेडियो का 'अनाउन्सर सलाम नहीं कहता क्योंकि वह इसलाम का प्रचारक नहीं हिंदुस्तान का भक्त है। वह तो उर्दू हिंदी को छोड़ निरी 'हिंदुस्तानी' में 'प्रादाब अर्ज' कहता है। उर्दू में क्या कहेगा ? यह हम नहीं कह सकते । इसे तो उर्दू परस्त ही बता सकते हैं। हम तो केवल इतना ही कह देना चाहते हैं कि रेडियों का 'अनाउन्सर कभी नमस्कार नहीं करता और सदा उस 'श्रादाब अर्ज' का व्यवहार करता है जिसका मजहब और इसलाम से कोई संबंध नहों, जिसका अरब और ईरान से भी कोई लगाव नहीं। 'आदात्र अर्ज' अरबी है पर अरव इसका अर्थ नहीं जानते। क्यों ? बात यह है कि यह उनका शब्द नहीं यह तो हिंदुस्तान की हिंदुस्तानी (अरवी ) का शब्द है। हिंदुस्तानी में जितने शब्द गढ़े जायेंगे सब अरवी के होंगे। अरब उनको भले ही न समझ पर हिंदुस्तानी तो अवश्य ही उन्हें समझेगे क्योंकि वे उनके आमफहम शब्द जो होंगे ? बात भले ही गले के नीचे न उतरे पर मानना आपको यही पड़ेगा-एकता जो चाहिए। रेडियो का अनाउन्सर सदा 'आदाब अर्ज' क्यों करता है ? यह समझ के बाहर की बात नहीं है। श्रीसंपूर्णानंदजी कहते हैं कि इसी को वह अपनी संस्कृति का शिष्टाचार समझता है। 'हमारी ज़बान' पहले तो 'संस्कृति को मजहब' की ओर खींच ले जाती है और अपनी दुनिया को यह दिखा देना चाहती है कि कांग्रेसी संपूर्णानंद भी इसलाम से चिढ़ते हैं और फिर उसका ठीक अर्थ 'तमदुन' लेती है और एक नई धौंस जमाती है कि इसका रेडियो के मुहकमे के तमदुन से कोई संबंध नहीं। ध्यान देने की बात है कि हमारी ज़बान' रेडियो के मुहकमे से भली