पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१५८

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- राष्ट्रभाषा का स्वरूप सरसैयदी पाठ सुनाया और तपाक के साथ कह दिया कि जब मुसलमान अरब और ईरान से आये तब उनके पास यह 'आदाव अर्ज' नहीं था। वह तो हिंदू मुसलिम मेल से बना। हमारी जवान' कुछ और भी खुली । उसने बड़े तपाक से कह दिया- ऐसा मालूम होता है कि हिंदी-साहित्य संमेलन के सदर (सभा- पति) 'श्रादाब अर्ज है' को भी मज़हवी जुमलः समझते हैं। यह न अरत्र में मुस्तामल है न ईरान में, इसका मोहकम ये रेडियो के तमदुन से कोई ताल्लुक नहीं और सरकारी मोहकों का कोई अलग तमडुन नहीं होता बल्कि यह ऐम हिंदुस्तानी तमद्दुन के मुताबिक है । (५६ जनवरी, अंजुमने तरक्कीए उर्दू (हिंद) का पाक्षिक पत्र, दरचागंज दिल्ली, पृ०३) देखा आपने कितने पते की बात है ? 'आदाब अर्ज' न तो अरब में बोला जाता है और न ईरान में, न मिश्र में बोला जाता है और न तूरान में । तो हिंदुस्तान के सिर पर ही यह भूत सवार क्यों है ? वी उर्दू फरमाती हैं कि यह हिंदू-मुसलिम मेल की निशानी है। हिंदुओं और मुसलमानों ने नमस्कार और सलाम को छोड़कर आपस के व्यवहार के लिये इसे बना लिया। सच पूछिए तो उर्दू के इसी फतवे में सारा भेद छिपा है। तनिक सोचिए तो सही कि 'आदाब अर्ज' के लिये इतना कठोर आग्रह क्यों है क्या इसलिए कि इसमें इसलाम समेटकर रख दिया गया है अथवा इसलिए कि इसके द्वारा 'एशिया' के अन्य मुसलिम मुल्कों अरब, ईरान आदि-से किसी प्रकार का संबंध जुट सकता है ? नहीं, कदापि नहीं। बेचारे अरब ईरान तो इसे जानते ही नहीं। उन्हें तो वही सलाम प्रिय होगा जो आज भी इसी हिंदुस्तान में आदाब अर्ज से कहीं अधिक प्रचलित है और इसलाम