पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१५७

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१२-रेडियो का आदाब अर्ज अखिल-हिंदी-साहित्य संमेलन के पूना अधिवेशन के सभा- पति श्रीसम्पूर्णानन्द श्राज जेल में पड़े हैं । उर्दू के लोग उनके अभिभाषण के एक अंश को ले वेतरह बरस पड़े हैं । इलाहाबाद की तो एक कांग्रेसी उर्दू चौकड़ी ने महात्मा गांधी का आसन हिला दिया है और राष्ट्र की पक्की गोहार लगा दी है। उधर दिल्ली की हमारी जवान इस मैदान में और भी आगे निकल गई है हैदराबाद के अखबार भी चिल्ला उठे हैं। बात यह है कि श्री सम्पूर्णानन्द ने अपने अभिभाषण में लिख दिया कि--- सरकार का रेडियो विभाग तो हिंदी के पीछे हाथ धोकर पड़ा है। कहने को तो यह अपने को हिंदी उर्दू से अलग रखकर हिंदुस्तानी को अपनी भाषा मानता है पर उसकी हिंदुस्तानी उर्दू का ही नामांतर है। मैंने शिकायतें सुनी हैं कि 'टाक्स' में संस्कृत के सत्सम शब्दों पर कलम चला दी जाती है। यह हो या न हो उसकी हिंदुस्तानी के उदाहरण तो हम नित्य सुनते हैं । यदि 'मृग' जैसा शब्द भी पा गया तो यामी हिरन' कहने की आवश्यकता पड़ती है पर "शफ़क', 'तसपुर', 'पेशकश 'तखय्युल' जैसे शब्द सरल और सुबोध माने जाते हैं। रेडियो विभाग समझता है कि साधारणतया हिंदू मुसलमानों के घर यही बोली बोली जाती है । रेडियो का अनाउन्सर' कभी नमस्कार नहीं करता, उसकी संस्कृति में 'श्रादाब अर्ज करना ही शिष्टाचार है। श्री सम्पूर्णानन्द के कथन की मीमांसा तो दूर रही, उर्दू अन्तिम वाक्य को ले उड़ी। इलाहाबाद की चौकड़ी ने वहीं