पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१५

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५ राष्ट्रभाषा १५-झा-शतलखासं श्रीरामजीवशर्म-फनदहस महोपाध्याय श्री रुचिपतिमिश्र- १६-खौयालसं श्रीभीषणशर्म बुधवालसं श्रीगोननशर्मानः सौराष्ट्र वामिनः- १७-लिखितमिदमुभयानुसत्या साद्धैकादशाणकानादाय सक- राढीसं श्रीतारा- १८-पतिशमणेति शिवं । चैत्रासित ३ कुजे शाके १६५१ सन् १११६ साल।। १६-सही दुल्ली अमातक । साड़े एगारह रुपैया लए विकए- लहु । सही २०--पराली । बहिक वर्षमध्ये पडाए तमो हमें निसाकरीत्र बेउजुर ॥ (इंडियन हिस्टोरिकल रेकार्ड कर्माशन, प्रोसीडिंग्ज श्राफ दि मीटिंग्ज, वोल्यूम १३, १९४२, पृ०६७-६) अस्तु, अब तो यह मान लेने में किसी भी मनीषी को कोई अड़चन नहीं रही कि मुगल साम्राज्य में संस्कृत जीवित रही और भाषा के साथ ही साथ बात-व्यवहार वा लेन-देन में चलती रही। संस्कृत को बारबार मृत भाषा कहने वालों को तनिक होश में आना चाहिए और इस प्रकार की धाँधली मचाने के पहले एक बार अपने पूर्वजों की पोटली को खोल देखना चाहिए । पुराने पादरियों के शिष्य फिरंगी चाहे कुछ भी कहते रहे पर भारतीय भाषाओं के कुशल पंडित आज भी संस्कृत के प्रभाव को मानते हैं और कभी कभी तो उसी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना भी चाहते हैं। एक विद्वान उसको किसी भी भारतीय देशभाषा से अधिक व्यापक और सुदूर देशों में फैली हुई पाता है तो दूसरा उसी के सरल