पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१४९

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बेसिक हिसाब की पहली पुस्तक १३६ खदेड़कर उनका स्थान दूर के मनबुझे फारसी-अरबी शब्दों को दिया गया है ? अब यदि युक्तप्रांत के शिक्षा विभाग की वही नीति है कि हिंदी के अत्यंत प्रचलित नित्य प्रति के व्यवहार के घरेलू शब्द भी बालकों की पाठ्य पुस्तकों में न रहने दिए जाय और उनकी जगह ढूँढ़ ढूंढ़ कर फारसी-अरबी के किताबी शब्द रखे जायँ तो सरकार चाव से ऐसा कर सकती है और उन्हें लाठी के बल पर बला भी सकती है पर हिंदी पर इतनी कृपा तो उसकी होनी ही चाहिये कि उसे वह इस प्रकार भ्रष्ट न करे। जन प्रसुता उसके हाथ में है तब कोई कारण नहीं कि वह उर्दू अथवा हिंदुस्तानी का प्रयोग खुलकर क्यों न करे ? हम तो किसी भी दशा में यह मानने से रहे कि डाक्टर इत्रादुर्रहमान खाँ ने वेसिक स्कूलों की प्रथम कक्षा के लिए कोई हिंदी की पुस्तक लिखी है। आप चाहें तो उसे हिंदुस्तानी की पुस्तक मान सकते हैं। क्योंकि उसकी भ्रष्ट भाषा को हम किसी अन्य रूप में देख नहीं सकते। क्या युक्तप्रांत के शिक्षा विभाग के कर्णधार श्री जे० सी० पावल प्राइस महोदय से यह आशा की जा सकती है कि उनके उदार अनुशासन में हिंदी की इस प्रकार की हत्या न होगी और हिंदी भी उर्दू की भाँति ही अपना स्वतंत्र विकास कर सकेगी? यदि उनका उद्देश्य किसी हिंदुस्तानी का निर्माण करना होता तो संभवतः हम मौन ही रह जाते परंतु जद हम देखते हैं कि हिंदी की श्रोट में हिंदी की चिंदी बनाई जा रही है तब हम उनका द्वार क्यों न खटखटाएँ। क्या खटखटाने से उनका द्वार खुलेगा और उनके घर में हिंदी को स्थान मिलेगा?