पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१४२

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राष्ट्रभाषा पर विचार रामकिशोर--नहीं, नहीं, हरगिज नहीं। यह आप क्या कहते हैं ? पंडित करताकिशुन--मेरी किस्मत में यही जिल्लत लिखी थी। पंडित श्यामलाल (दुल्हे का बाप) ऐसी बात जबान पर मत लाइये । श्राप हम सब के बुजुर्ग हैं। (दुलहिन अपनी नजर जमीन से उठाती है और दुलहा के चेहरे- पर गाड़ देती है । रामकिशोर उसकी तरफ देखता है, लेकिन घबरा के निगाहें नीची कर लेता है)। शकुन्तला (दुलहिन)-बेशक, खतम हो गया । तमाम किस्सा हमेशा के लिये खतम हो गया (पृ०-१०)। बस ! कृपया भूल न जाइये कि वाजिदअली शाह के लखनऊ अथवा नासिख के इस्फहान की औरतों की जुबान पर हिंदी अल्फाज़ बकसरत हैं। इसलिये रेखता तो सरासर हिंदी रंग में डूबी (मुईनुद्दीन अहमद नदवी, हिंदुस्तानी ( उर्दू ) १९३८ ई०, पृ०२०८)। अंत में हमारा यह नम्र निवेदन है कि हमारे 'कुछ साहित्य- सेवी' जमाने के रुख को देखें और इसे प्रांतीयता का रंग न दें। 'बिहार में हिंदुस्तानी' को अच्छी तरह समझने के लिए कम से कम हमारी भाषा का प्रश्न' और 'कचहरी भाषा और लिपि' नामक पुस्तकों का अध्ययन कृपा कर अवश्य करें और युक्तप्रांत की हिंदुस्तानी की धज्जियाँ भी खूब उड़ायें। हमारे सामने तो इस समय समूचा हिंद है। लेख समाप्त करते करते एक बात और सामने आ गई। हिंदी साहित्य संमेलन के गत ( काशी के) अधिवेशन में देशरत्न राजेंद्र