पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१३७

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बिहार और हिंदुस्तानी है राह का शग़ल है, बातों में जरा जी बहलता है।' मीर साहब बिगड़ फर बोले कि–'खैर, अापका शगल है, मेरी जबान खराब होती है। मीर साहब वेदिमाग कहे जाते हैं। यह उनकी वेदिमागी हो सकती है, पर बात यहीं समाप्त नहीं होती। शेख इमाम बख्श नासिख,जो आधुनिक उर्दू के विधाता और जवान के पक्के पहलवान हैं, (इसी पहलवानी के लिये नासिख की उपाधि से विभूषित हैं) अजीमाबाद ( पटना) से भाग पड़े। वह इसलिये नहीं कि वहाँ आवभगत की कमी पड़ी बल्कि इसलिये कि वहाँ रहने से उनकी जबान बिगड़ती थी। चाँदनी पड़ने से माशूक का बदन मैला हो या न हो, किंतु बाहरी जवान कानमें पड़ने से इन लोगों का (मुँह ) जरूर मैला हो जाता था। तभी तो इस तरह जनता यया भद्र पुरुषों से किनारा कसते थे और कमरे में बैठे बिठाये अरवी फारसी के बलपर जबान का दंगल मारते थे और शागिर्दो की वाहवाही और शरीफों की खूब खूब में मग्न होकर हिंदी जबान का खून कर जाते थे और इमाम नासिख, इमाम नासिख के रोव में जबान के गाजी बन जाते थे।" और,--हाँ, तो इमाम नासिख लखनवी थे। देहली का शायद उन्होंने मुँह भी नहीं देखा था। दिल्लीवालो के लिये वे भी पूरबी थे। उन्हें जबान का इतना नाज क्यों हुना कि पटना से भाग पड़े ? उनके पिता भी तो देहलवी न थे बल्कि महज पंजाबी थे। उनको इस प्रकार का जबान पर दावा क्यों हुआ ? बात यह है कि अपनी जबान को फारसी रंग में उन्होंने इतना रंग लिया था कि यार लोग उस पर लट्टू हो गये। उन्हें उर्दू ए मुअल्ला की सुधि न रही। नासिख के कलाम का मुलम्मा उन पर भी हावी हो गया और वे लोग