पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१३२

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राष्ट्रभाषा पर विचार उनको १८२० में ही दफना दिया जाता है। कुछ दिन और जीते तो देहली दरवार का काम ही कर जाते। हम तो यही मानते थे कि राजा राममोहन राय सन् १८३३ ई० में मरे थे और मरे थे इंगलैंड में मुगल सरकार के काम से। वावा तुलसी की भी कुछ यही दशा है। बेचारे 'कथा प्रबन्ध विचित्र बनाई' कहकर मर गये पर हमारे हिन्दुस्तानी दोस्तों का काम इससे न चला। उन्हें खुलकर लिखना ही पड़ा कि 'उन्होंने हिन्दी तर्जुमे में असल रामायण को चार-चाँद लगा दिए । (पृ० ११) 'चार चाँद' आपके लिये चाहे जो कुछ हो, पर हमारे लिये तो वह 'चार लात लगा दिए' के तुल्य ही है। ऐसी ही मुहावरों की दुर्गति इस पोथी में जगह-जगह की गई है। उर्दू तो उन्हें सह नहीं सकती। कोदो दलने के लिये इसी हिन्दुस्तानी की छाती काफी चौड़ी है। पर बात यहीं नहीं रह जाती। 'संवत् सोलह सौ इकतीसा' भी इस 'हिंदुस्तानी पोथी' में सन् १५५४ ई० हो जाता है । जाने कहाँ का गणितशास्त्र युक्तप्रांत में टपक पड़ा है। हम लोग तो यही जानते थे कि सामान्यतः वि० सं० में से ५७ घटा देने से ईसवी सन् की प्राप्ति हो जाती है पर अब देखते यह हैं कि ७७ (१६३१-१५५४ ) घटाने की नौबत आ गयी। प्रसंग बढ़ाने से कोई लाभ नहीं, पर पद्य की चर्चा है आव. श्यक । पद्य के क्षेत्र में हिन्दी उर्दू का कोई मेल नहीं । उर्दू यहाँ सोलहो पाना अहिंदी बन चुकी है, और उर्दू के विद्वानों ने दावे के साथ कहना भी शुरू कर दिया है कि हिन्दी में छन्द ही कहाँ हैं । हिन्दी बच्चों की पोथी में हिंदी छदों का प्रभाव किस भाव का