पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१२६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८-हिंदुस्तानी की चौथी पोथी युक्तप्रांत की बिसखोपड़ी रीडरों से यदि होनहार बच्चों को बचाने का प्रयत्न न किया गया तो 'स्वराज्य का स्वप्न देखना तो दूर रहा' कहीं 'स्व' भी देखने को नसीब न होगा। उधर उर्दू के समझदार आचार्य तो इस चिंता में लगे हैं कि उर्दू को स्वदेशी बनाने के लिए बाध्य करें और इधर 'हिंदुस्तानी' के विधाता इस फेर में पड़े हैं कि हिंदी को अहिंदी कर उसे उर्दू से कुछ और भी आगे बढ़ा दें जिस से उर्दू परस्त परदेशी अपने आपको स्वदेशी समझ लें । परिणाम यह हुआ है कि युक्तप्रांत की रीडरों में हिंदी छंदों का 'बायकाट' कर दिया गया है और यह सिद्ध कर दिया गया है कि उर्दू भाषा ही नहीं उर्दू शायरी भी घर घर छा गई है। मुई हिंदी तो अब काशी के पंडितों अथवा सम्पूर्णानंदी लोगों के मुँह क्या पोथों में रह गई है जो केवल चिढ़ाने के लिए बाहर निकाली जाती है। नहीं तो आम जनता की भाषा तो भूल गया, जबान तो उर्दू है-वह उर्दू जिस में हिंदी छंद का नाम नहीं। परंतु हिंदी को प्रसन्न करने और अपने को सच्ची हिंदुस्तानी सिद्ध करने के लिए कुछ हिंदी भी तो जरूरी है ? लीजिए वह आपके सामने है। आप ही न्याय की नजर से देख + बाबू संपूर्णानंदजी हिंदी में प्रचलित विदेशी शब्दों का बहिष्कार नहीं चाहते पर साथ ही प्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी उचित समझते हैं । यह दूसरी बात उर्दू-भक्तों को सह्य नहीं है इसलिए जो हिंदी शत प्रतिशत विदेशी शब्दों से युक्त नहीं है उसे वे कभी कभी 'संपूर्णानंदी हिंदी के नाम से पुकारते हैं।