पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१२४

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राष्ट्रभाषा पर विचार ११४ बोलते हैं। वह भाषा हिंदी या हिंदुस्तानी है, चाहे वह देवनागरी अक्षरों में लिखी जाय, चाहे उर्दू खत में । (हंस, जुलाई सन् १९३६ ई०, पृ० १०३) साहस तो नहीं होता, पर कहना यही है कि संमेलन की परिभाषा महात्मा गांधी की व्याख्या से भी कहीं आगे बढ़ गई है। महात्मा गांधी ने 'चाहे' शब्द का प्रयोग कर लिपि को गौण ठहरा दिया है तो संमेलन ने 'लिखी जाती हो' का विधान कर भाषा को लिपियों में जकड़ दिया है। 'नागरी लिपि' और 'उर्दू खत' की योग्यता को तुल्य बनाकर संमेलन ने 'टका सेर मूली टका सेर खाजा' को चरितार्थ कर दिया है। पता नहीं, कैथी, वा रोमी लिपि में लिखी हिंदी या हिंदुस्तानी राष्ट्रभाषा हो सकती है अथवा नहीं। संमेलन और महात्मा गांधी की परिभाषा तो इसके प्रतिकूल है। जो हो इतना तो निर्विवाद है कि हिंदी-साहित्य संमेलन ने परोक्ष और प्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में हिंदी हिंदुस्तानी को महत्त्व दिया है और अंत में मद्रास में जाकर उसे अपना भी लिया है। निदान, श्रद्धेय टंडन जी का नियमावली की दुहाई दे स्थिति को उलझा देना ठीक नहीं । जान पड़ता है कि संमेलन के कागदपत्रों की जांच ठीक से नहीं हुई और सच्ची सामग्री श्री टंडन जी के सामने न आ सकी। नहीं तो इस प्रकार की धांधली न मचती। संक्षेप में, हमें निवेदन यह कर देना है कि हमने किसी प्रमाद या भ्रम में आकर हिंदी साहित्य संमेलन का उल्लेख नहीं किया है बल्कि सोच समझकर खूब छानबीन कर ही हिंदी साहित्य संमेलन की नागपुर की बैठक का निर्देश किया है और दावे के साथ स्थिति को स्पष्ट करने के लिए ही एक अद्भुत बात निकल आई