पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१२१

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$ हिंदी-हिंदुस्तानी का उदय १११ एक बात और। यदि विचार से देखा जाय तो यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय साहित्य परिषद् के सभापति महात्मा गांधी; उस समय तक हिंदी साहित्य संमेलन के भी सभापति थे । उनकी जगह देशरत्न राजेंद्रबाबू को नहीं मिली और दूसरे दिन काम चलाने के लिये राष्ट्रपति जवाहरलाल परिषद् के सभापति बने। इसका प्रधान कारण चाहे जो रहा हो। पर इतना तो निर्विवाद है कि फिर परिषद् के उपसभापति वही साहित्य संमेलन के सभापति राजेन्द्रबाबू हो जाते हैं और पं. जवाहरलाल नेहरू सदस्य मात्र हो जाते हैं । निदान, हमें विवश हो मानना पड़ता है कि भारतीय-साहित्य परिषद् का हिंदी-साहित्य संमेलन से गहरा लगाव था। उसको संमेलन से बिल्कुल अलग दिखा देना असंभव है। ठीक वैसा ही तो नहीं, पर बहुत कुछ उसी ढंग का लगाव संमेलन और परिषद् में रहा जैसा आज संमेलन और उसी की राष्ट्रभाषा-प्रचार समिति का है। एक ओर आप संमेलन की प्रचारसमिति को रखिए और दूसरी ओर राष्ट्र-भाषा प्रचार-समिति को तो आप को प्रत्यक्ष दिखाई देगा कि यही संबंध साहित्यपरिषद् और भारतीय-साहित्य परिषद् में भी बहुत कुछ काम कर रहा था । अस्तु, महात्मा गांधी का यह कहना कि भारतीय-साहित्य- परिषद् के लिये हिंदी शब्द का बहिष्कार करना इसलिये अनुचित है कि यह वस्तुतः उसी का बच्चा है, अक्षरशः ठीक है। भारतीय-साहित्य परिषद् में हिंदी-हिंदुस्तानी का प्रस्ताव तो पास हुआ किंतु हिंदी-हिंदुस्तानी की खान कहीं और ही है। हम देखते हैं कि परिषद् के स्वागताध्यक्ष काका कालेलकर जी अपने अभिभाषण में बारबार इसी हिंदी-हिंदुस्तानी का प्रयोग करते हैं। उनका कहना है- जिन्होंने इस प्रवृत्ति का प्रारंभ किया है वह इस निश्चय पर श्रा