पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१२

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२ राष्ट्रभाषा पर विचार भारत की राष्ट्रभाषा भारती का इतिहास बड़ा रोचक है । यहाँ उसकी रामकहानी से क्या लाभ ? यहाँ तो उर्दू-अँगरेजी का अभिमान चूर करने के लिये इतना ही दिखा देना पर्याप्त होगा कि ईरानी-तूरानी मुसलमानों के आगमन के पहले ही यहाँ की राष्ट्रभाषा भली भाँति चारों ओर फैल चुकी थी और अपने शिष्ट तथा सहज दोनों ही रूपों में सर्वत्र व्यवहृत हो रही थी । और तो और,महमूद गजनवी जैसे कट्टर गाजी सुलतान की मुद्राओं पर वही मुई संस्कृत विराजमान है जिसका नाम ही आज उर्दू को रसातल भेज रहा है। लाहौर में उसका जो सिका ढला उल पर लिखा गया-'अव्यक्तं एकं, मुहम्मद अवतार, नृपति महमूद' एवं 'अयं टंको महमूदपुरे घटे हतो, जिनायनसंवत्' । ध्यान देने की बात है कि महमूद मुहम्मद साहब को अवतार तथा उनके हिजरी संवत् को जिनायन लिखवाता है और इस बात से तनिक भी भयभीत नहीं होता कि उसके कट्टर मुल्ला उसका विरोध करेंगे। करते भी क्यों ? उस समय का इसलाम कुछ और ही था। आज तो 'श्री' शब्द से इसलाम ने शत्रुता ठान ली है पर कभी शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी से शेरशाह सूर तक सभी समर्थ बादशाहों के सिक्कों पर 'श्री हम्मीर' 'श्री हमीर' आदि का दर्शन हो जाता है और धर्मधुरीण कट्टर 'नमाजी' औरंगजेब के शासन में तो इस 'श्री' की बाढ़ सी आ जाती है। देखिए न उस समय का एक गृहाड्डा- एक पत्र' है-- "स्वस्ति श्री संवत् १७२४ वर्षे माघ सुदि ७ गुरौ श्रद्धेय पातशाहा श्रीसुलतान शाहा श्रालमन्यरी साहिबकुरानशानी धारमिक सत्यवादी वाचा अविचल ज्यवनकुलतिलक सकलरायांशरोमणि महाराजराजेश्वर एहवो पातशाहा श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री अवरंगजेब सरबमुद्राराज्य