पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/११८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०६ राष्ट्रभाषा पर विचार पूछिए तो अब कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं रही, हिंदी- साहित्य-संमेलन का सच्चा रूप इतने ही से अच्छी तरह सामने आ गया, पर हमें भूत की चर्चा से भविष्य में लाभ उठाना है। हिंदी साहित्य-संमेलन की आज की नीति से हिंदी को और भी आगे बढ़ाना है। अतएव यहाँ इस संमेलनी 'हिंदी-हिंदुस्तानी' के इतिहास पर भी विचार कर लेना चाहिए। अच्छा तो इस संमेलनी हिंदी-हिंदुस्तानी का मूल स्रोत कहाँ ? संभवतः आप भी श्री टंडन जी के साथ यही कहेंगे कि भारतीय साहित्य परिषद् के प्रथम अधिवेशन में । हाँ, ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी साहित्य संमेलन ने नागपुर के अपने निजी अधिवेशन में कोई भी हिंदी हिंदुस्तानी नाम का खुला प्रस्ताव पास नहीं किया। उसके किसी प्रस्ताव में हिंदी- हिंदुस्तानी का व्यवहार हुआ अथवा नहीं, यह हम कुछ भी नहीं कह सकते। कारण, हमारे पास प्रस्तावों की सूची अथवा उक्त अधिवेशन का कोई विवरण नहीं । बहुत प्रयत्न करने पर भी वह काशी में (नागरी प्रचारिणी सभा के पुस्तकालय में भी) नहीं मिल सका। पर इतना अवश्य है कि उक्त अधिवेशन का लगाव कुछ न कुछ उक्त परिषद् से भी अवश्य था। क्या लगाव था, यह अभी खुल जाता है। भारतीय साहित्य परिषद् के मुखपत्र हंस की वाणी पर ध्यान दीजिये। उसमें से कितनी ठोस ध्वनि निकलती है- भारतीय सा० परिषद् के कार्य को चलाने के लिये हिं० सा. संमेलन ने एक समिति चुनी है। इसके सभापति महात्माजी हैं, लेकिन उप- सभापति राजेन्द्र प्रसादजी ही उसका सारा काम करेंगे । यदि महज बरूरत हुई, तो महात्माजी को किसी खास बात को हल करने के लिये