पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/११५

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७-~-हिंदी-हिंदुस्तानी का उदय हिंदी-साहित्य संमेलन के प्राण और राष्ट्र के कर्मठ नेता श्रद्धेय श्री पुरुषोत्तमदास टंडनजी ने कुछ दिन हुए 'हिंदी' और 'हिंदुस्तानी' के संबंध में हिंदी-साहित्य संमेलन की नीति' नाम का जो वक्तव्य निकाला है उससे इस विनीत का भी कुछ संबंध है, अतएव इस विषय में उसका मौन रह जाना कुछ अनर्थ का ही कारण समझा जायगा, 'आज्ञागुरूणामविचारणीया' का परिचायक नहीं । निदान विवश हो, संक्षेप में, उत्तर, समाधान अथवा प्रतिवाद न कर थोड़े में उस स्थिति को स्पष्ट कर देना है जिसके कारण हिंदी- साहित्य संमेलन का नाता हिंदुस्तानी से जुड़ गया है और विनीत लेखक ने लिख दिया है- 'हिंदी साहित्य संमेलन की नागपुर की बैठक में एक अद्भुत बात यह निकल आई कि हमारी राष्ट्रभाषा का नाम हिंदी या हिंदुस्तानी न रहकर 'हिंदी हिंदुस्तानी' हो गया और इसने धीरे धीरे फिर हिंदी उर्दू प्रश्न को उभार दिया। हिंदी-हिंदुस्तानी' का नामकरण यद्यपि नवीन न था तथापि उसके प्रयोग में आ जाने से संप्रदाय विशेष में बड़ी खलबली मची और इस बात की भरपूर चेष्टा की गई कि 'हिंदी- हिंदुस्तानी' का रहस्य खोल दिया जाय। सच पूछिए तो 'हिंदी हिंदुस्तानो' कोई भेदभरी बात नहीं है बल्कि उलझन से बचने का एक सहज उपाय है। इस उपाय को अमोघ अस्त्र समझना भारी भूल है। (भाषा का प्रश्न, ना०प्र० सभा, पृ०६३)