पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१११

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हिंदुस्तानी का आग्रह क्यों १०१ हिंदुस्तानी की चिंता की जाती है तब वह तुरंत अरबी-फारसी की ओर दौड़ जाती है और उस मुंशी-शैली के रूप में सामने आती है जिसका प्रचलन फोर्ट-विलियम कालेज में डाक्टर गिलक्रिस्ट साहब की कृपा से किया गया था जिसका प्रचार तभी से सरकार द्वारा हो रहा है। निदान विवश हो हमें यह कहना पड़ता है कि यदि सचमुच हम राष्ट्रभाषा की खोज में हैं तो हमें उसी हिंदी वा नागरी वा हिंदुस्तानी को अपनाना चाहिए जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती और देश की सभी देशभाषाओं की भाँति समय पड़ने पर संस्कृत से सहायता लेती है, कुछ उस हिंदुस्तानी को नहीं जो जन्मी तो हिंदुस्थान में ही पर हिंदुस्थान से उसकी कोई ममता नहीं रही-उसकी देशभाषाओं से उसे प्रेम नहीं, उसकी परंपरागत राष्ट्रभाषा से उसका संबंध नहीं- और जो लिखी तो जाती फारसी-लिपि में है और सदा लपकती रहती है अरबी फारसी की ओर हो। हम उर्दू के विरोधी नहीं, पर कभी उसे राष्ट्रभाषा का पर्याय मानने से रहे । इतिहास पुकार कर कह रहा है कि वह दरबार की शैली है, फारसी की जगह दरबार में फैली और दरबार के साथ ही इधर-उधर बढ़ती रही। दरबार चाहे तो आज भी उसका सत्कार कर सकता है और फारसी की भाँति उसे भी पाठ्यक्रम का अंग बना सकता है। पर एक काव्य भाषा रूप में ही, किसी राष्ट्रभाषा के रूप में कदापि नहीं। भारत की राष्ट्रभाषा तो नागरी थी, है, और वही रहेगी भी। चार दिन के लिये चाहे जिस किसी की चाँदनी हो, पर सदा की चाँदनी तो उसी की है। हाँ, दिल्ली के तबलीगी नेता ख्वाजा हसन निजामी ने ठीक ही कहा है कि-