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१—राष्ट्रभाषा

गिरा अरथ जल-बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न।
बंदौ सीताराम-पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न॥

देवियो और सज्जनो!

देश जब टुकड़ों टुकड़ों में बँट रहा हो और यारों की पाकिस्तानी दृष्टि उसकी बोटी बोटी के लिये ललक रही हो तब इस प्रकार एकत्र हो राष्ट्रभाषा पर विचार करना आप ही का काम है। कहते हैं, कभी संकट के समय इस देश के ८८००० ऋषि एकत्र हो किसी अरण्य में लोकमंगल का उपाय सोचते और फिर एकमत हो नगर नगर, गाँव गाँव और घर घर उसकी धूम मचा देते। वन न सही, हरिद्वार की पुण्यस्थली किस तपोभूमि से कम है। आइए हम-आप एकमत हो कोई ऐसा उपाय करें जिससे राष्ट्रभाषा का प्रचार घर घर हो जाय और राष्ट्र का कोई भी कोना उससे अछूता न बचे। स्मरण रहे, यह भावना हमारे लिये नई नहीं है। नहीं, हमने भी 'अशोक' और 'समुद्र' के शासन में वह काम किया है जो आज बाहर का प्रसाद समझा जाता है। कौन है जो सचाई के साथ हमारे इतिहास को देखे और फिर हृदय पर हाथ रखकर, आँख मिलाकर हमारे सामने कह तो दे कि इसलाम के आगमन के पहले अथवा अँगरेजों के यहाँ जमने के पूर्व भारत कभी एक न था। भारत के किसी भी कोने में जाकर देखो, उसके 'संकल्प' को सुनो, उसके 'अभिषेक' को देखो, उसकी धाम-यात्रा के विवरण को पढ़ो और फिर कहो तो सही भारत की एकता कितनी पुरानी है और उसकी 'भारती' कितनी सजीव है।