पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१००

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राष्ट्रभाषा पर विचार स्तानी का रूप देने की कोशिश की गई। लेकिन चंद लोग इस कोशिश को हजम नहीं कर सके। उन्हें डर लगा कि हिंदुस्तानी भनते-बनते शायद हिंदी-उर्दू बन जायगी। इस वास्ते उन्होंने हिंदी को हिंदी ही रखकर, हिंदी और उर्दू को राष्ट्रभाषा का स्थान देना पसंद किया । जो भाषा अंतर्भातीय बोलचाल की, यानी सांस्कृतिक विनिमय की भाषा नहीं बन सकती, वह हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा भी नहीं बन सकती । न हम उसे राष्ट्रभाषा कह सकते हैं। अब श्रेय इसी में है कि हम हिंदी को राष्ट्रभाषा का एक अंग कहें हम चाहें तो उसे प्रधान अंग कह सकते हैं-किंतु हिंदी और उर्दू मिलकर' ही राष्ट्रभाषा बन सकती है। उसका नाम हिंदुस्तानी है, इस बारे में देश में अब कहीं भी मतभेद नहीं रहा। वही संस्कार-संपन्न हिंदुस्तान की बोलचाल की अर्थात् सांस्कृ. तिक व्यवहार की भाषा है। १-इस न्याय के श्राधार पर हम चाहें तो कह सकते हैं कि किस्तान और हिंदुस्तान मिलकर ही राष्ट्र बन सकता है और उसका म है गड़बड़िस्तान । अतः यदि हमें गड़बड़िस्तान प्रिय है तो हमें हेदुस्तानी' का स्वागत करना ही चाहिए नहीं तो 'न नव मन तेल ईनराघा नचिहैं' की कहावत तो प्रसिद्ध ही है। २-कहिए इस 'कहीं' का अर्थ कोई क्या समझे ? सच है, दहुँ अाँख-कतहुँ कोउ नाहीं ।'