पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/७२

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छल-छ ॐ जिनके पास श्रद्धारूपी पाथेय ( राह-खर्च ) नहीं है और न सन्तों का साथ न है, और जिनको रघुनाथजी प्रिय नहीं हैं, उनके लिये यह “मानस’’ अत्यंत ही ॐ अगम्य है। राम जौं करि कष्ट जाइ पुति कोई ॐ जातहि नींद जुड़ाई होई जड़ता जाड़ विषम उर लागा ॐ गहुँ न मजन पाव अभागा । राम) यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाय, तो वहाँ जाते ही है उसे नींदरूपी जूड़ी घेर लेती है। उसके हृदय में मूर्खतारूपी कड़ा जोड़ा ऐसा है। राम्रो लगता है कि वहाँ पहुँचने पर भी वह अभागी स्नान नहीं कर पाता।। करि ने जाइ सर मजन पाना ॐ फिरि अावइ समेत अभिमाना ॐ ज बहोरि कोउ पूछन आवा ॐ सर निंदा करि ताहि बुझाया है उससे उस सरोवर में न तो स्नान ही किया जाता है और न उसका जल के ही पिया जाती है। वह अभिमान-सहित लौट आता है। फिर यदि कोई रोम, उससे वहाँ का कुछ हाल पूछने आता है, तो वह सरोवर की निन्दा करके उसे ॐ समझाता है। (राम) सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही $ी राम सुकृपा विलोकहिं जेही ॐ सोइ सादर सर मजनु करई $ सहा घोर त्रय ताप न जरई ये सारे विध्न उसे नहीं व्यापते, जिसे रामचन्द्रजी सुन्दर कृपा की दृष्टि से * देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और मही भयंकर तीनों । प्रकार के ( दैहिक, दैविक और भौतिक ) तापों से नहीं जलता ।। ते नर यह सर तजाहिं न काऊ ॐ जिन्हके राम चरन भल भाऊ , ॐ जो नहाई चह एहि सर भाई ॐ सो सतसंग करौ मन लाई रामो वे मनुष्य इसे सरोवर को कभी नहीं छोड़ते, जिनके हृदय में रामचन्द्रजी के चरणों में सुन्दर प्रेम है । हे भाई ! जो कोई इस सरोवर में स्नान करना चाहे, राम) वह मन लगाकर सत्संग करे ।। । अस मानस मानस चष' चाही छ भइ कवि बुद्धि विमल अवगाही । भयेउ हृदयँ आनंद उछाहू ॐ उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रवाहू । ॐ ऐसे मानसरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें स्नान करके कवि १. आँख ।।