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एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहिं बहुरि१ सिरुनाई।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि  कलुष नसाइ।२९(३) 

इस प्रकार अपने गुण-दोषों को कहकर और सबको सिर नवा करके ॐ रामचन्द्रजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ, जिसे सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं।

जागवलिक जो कथा सोहाई । भरद्वाज मुनिवरहिं सुनाई ॥ 
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी । सुनहु सफल सज्जन सुखु मानी॥ 

याज्ञवल्क्य मुनि ने जो सुहावनी कथा मुनिवर भरद्वाजजी को सुनाई थी, उसी संवाद को मैं बरखानकर कहूँगा, सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए उसे सुनें ।

संभु कीन्ह यह चरित सोहावा । बहुरि क्रुपा करि उमाहिं सुनावा ॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहिं दीन्हा । रामभगत अधिकारी चीन्हा ॥

उस सुहावने रामचरित को पहले शिवजी ने रची और फिर कृपा करके पार्वती को सुनाया था। वही चरित शिबजी ने, राम का भक्त और अधिकारी पहचानकर कागभुशुण्डि को दिया ।।

तेहि सन२ जागवलिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥
ते श्रोता बक्ता समसीला । समदरसी जानहिं हरि लीला ॥ 

फिर कागभुशुण्डि से याज्ञवल्क्य ने पाया और फिर उन्होंने उसे भरद्वाजजी से वर्णन किया । वे दोनों वक्ता और श्रोता समान शील वाले और समदर्शी हैं और हरि की लीलाओं को जानते हैं ।

जानहिं तीनि काल निज ग्याना । करतल गत आमलक३ समाना ॥
औरउ जे हरि भगत सुजाना । कहहिं सुनहिं समुझहिं विधि नाना ॥ 

वे अपने ज्ञान से हाथ पर रखे हुए आमले के फल के समान तीनों कालों की बात को जानते हैं। और भी जो चतुर हरिभक्त हैं, वे इस चरित को तरह-तरह से कहते, सुनते और समझते हैं।


१. फिर ! २. से । ३. आँवला ।