पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/४११

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

४१० . [ मान : | रेख बँचाइ कहहुँ बल भाखी ॐ भामिनि भइहु दूध कइ माखी राम जौं सुत सहित करहुं सेवकाई ॐ तो घर रहहु न आन उपाई ॐ मैं लकीर खींचकर बलपूर्वक कहती हैं कि हे भामिनी ! तुम तो अब दूध की मक्खी हो गई। यदि पुत्र-सहित ( सौत की ) सेवकाई करो, तो घर में रहो; नहीं तो दूसरा उपाय नहीं । एम् कद्र बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहिं कौसिला देव। होम | भरते बन्दिय़ह सेइहहिं लषनु राम के नेब' ॥१९॥ तुम, कद्रू ने बिनता को दुःख दिया, तुम्हें कौशल्या देगी। भरत तो जेलखाने । रामो में पड़ेगे और लक्ष्मण राम के नायब (सहकारी ) होंगे। कैकय सुता सुनत कटु वानी ॐ कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी । एम् तन पसेउ कदली जिमि काँपी ॐ कुवरी दसन जीभ तब चाँपी' एमा * कैकेयी मन्थरा की कड़वी वाणी सुन भय से सूख गई। कुछ कह नहीं * सकती । उसके शरीर में पसीना हो आया और वह केले की तरह काँपने लगी । तब कुबरी मन्थरा ने अपनी जीभ दाँतों तले दबा ली । । कहि कहि कोटिक कपट कहानी ॐ धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी है म) कीन्हिसि कठिन पढाइ कुपाटू ॐ जिसि न नवइ फिरि उकठि कुकाढू * फिर कपट की करोड़ों कहानियाँ कह-कहकर उसने रानी को खूब समझाया कै (राम) कि धीरज घरो। उसने कैकेयी को कपट का पाठ पढ़ाकर ऐसा पक्का कर दिया, रामो * जिस तरह कुकाठ ( बवूल, बहेड़ा आदि ) उकठ ( सूखकर ऐंठ ) जाने पर फिर है राम) नहीं नवते । है फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली ॐ बकिहि सराहइ मानि मराली है राम सुनु मंथरा वात फुरि तोरी ॐ दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी एम । कैकेयी का भाग्य पलट गया, उसे कुचल प्यारी लगी । वह बगुली को छू णमा हंसिनी मानकर उसकी सराहना करने लगी । ( कैकेयी बोली--) मन्थरा ! सुन, तेरी बात सच है। मेरी दाहिनी आँख नित्य फड़का करती है । एम् दिन प्रति देखउँ राति कुसपने % कहउँ न तोहि मोह बस अपने * काह करउँ सखि सूध सुभाऊ ॐ दाहिन वाम न जानउँ काऊ हो १. नायव, सहकारी। २. पसीना । ३. द्रवाली।