पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/४०४

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  • ® ::: अयोध्छ-छङ : Bf ४०३ । विसमय हरष रहित रघुराऊ क तुम्हें जानहु सव राम प्रभाऊ हो राम जीव करम बस सुख दुख भागी ॐ जाइअ अवध देवहित लागी सुना

| आप तो रामचन्द्रजी के प्रभाव को जानती ही हैं, वे विपाद और हर्ष से | राम रहित हैं। जीव अपने कर्म-बश ही सुख-दुख का भागी होता है। अतएव आप देवताओं के हित के लिए अयोध्या जाइये ।। कू बार बार गहि चरन सँकोची $ चली विचार विबुध मति पोची' से ऊँच निवासु नीचि करतूती ॐ देखि न सकहिं पराइ विभूती * देवताओं ने बार-बार पाँच पकड़कर सरस्वती को संकोच में डाल दिया। * तब वह यह विचारकर चली कि देवताओं की बुद्धि ओछी है। इनका निवास तो के ऊँचा है; पर इनकी करनी नीच है। ये दूसरों का ऐश्वर्य नहीं देख सकते । [ विषम अलंकार] आगिल काजु विचार बहोरी के करिहहिं चाह कुसल कवि मोरी राम हरषि हृदय दसरथपुर आई ३ जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई गम) ॐ पर भविष्य के काम को विचारकर चतुर कवि मेरी चाह करेंगे। सरस्वती ( ऐसा सोचकर ) दशरथजी की पुरी (अयोध्या ) में आई । सानो वह असहनीय दुख देने वाली कोई ग्रह-दशा हो । राम लालु सन्थरा सन्दसति चेरी कैकेइ केरि ।।

  • अजस पेटाशं ताहि करि गई गिरा भलि फेर।१२।।

कैकेयी की एक मंद-बुद्धि दासी थी, जिसका नाम मन्थरा था। उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेर कर चली गई। दीख मंथरा नगरु बनावा ॐ मंजुल मङ्गल वाज वधावा लामो पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू $ राम तिलकु सुनि भा उर् दाहू | मन्थरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है, सुन्दर मंगलाचार हो रहे हैं और बधावे बज रहे हैं। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है ? रामचन्द्रजी के राज-तिलक की बात सुनते ही उसका हृदये जल उठी ।। करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती ® होइ अकाजु क्वनि विधि राती ३ देखि लागि मधु कुटिल किराती ॐ जिमि सँव तक लेउँ केहि भाँती १. ओछी । २. सरस्वती । ३. भीलनी ।