पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३९५

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ॐ ३६४ मा । हैं। यह बिचारु उर आनिटप सुदिन सुअवसरु पाई। प्रेम पुलकि तन मुदित मन शुरहिं सुनायेउ जाइ॥२॥ राम हृदय में इस विचार को लाकर शुभ दिन और सुन्दर समय पाकर, प्रेम से पुलकित शरीर हो आनंदित मन से राजा दशरथ ने उसे गुरु वशिष्ठजी को जा सुनाया। ॐ ऋहड़ भुल सुनिअ मुनिनायक ॐ भए राम सब विधि सब लायक राम सेवक सचिव सकल पुरबासी ॐ जे हमरे अति मित्र उदासी राजा ने कहा—हे मुनिराज़ ! सुनिए। अब रामचन्द्र सब तरह से सब लायक हो गये हैं। सेवक, मंत्री, सब नगर-निवासी और जो हमारे शत्रु-मित्र या उदासीन ( तटस्थ ) हैं, सबहिं राम प्रिय जेहि विधि मोही ॐ प्रभु असीस जनु तनु धरि सोहीं राम बिष सहित परिवार गोसाईं 8 करहिं छोहु सब रौरिहिं नाई मी हैं। सभी को रामचन्द्र वैसे ही प्यारे हैं, जैसे मुझको हैं। आपको आशीर्वाद ही है राम) मानो शरीर धारण करके शोभित हो रहा है । हे स्वामी ! सभी ब्राह्मण कुटुम्ब समेत आपही के समान उन पर प्रेम करते हैं। . . .। जे गुरु चरन रेनु सिर धरहीं $ ते जनु सकल विभव बस करहीं मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें ॐ सबु पायउँ रज पावनि पूजें जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो सम्पूर्ण ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। मेरे समान और किसी ने इसका * अनुभव नहीं किया। मैंने आपके पवित्र चरण-रज की पूजा करके सब कुछ पा के

  • लिया।

ॐ अव अभिलाषु एकु मन मोरे ॐ पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरे एम) मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू ॐ कहेउ नरेस जायसु देहू " हे नाथ ! अब मेरे मन में एक ही अभिलाषा है। वह भी आप ही के अनु” ग्रह से पूरी होगी । महाराज का स्वाभाविक प्रेम देखकर सुनि ने प्रसन्न होकर । * कहा–राजन् ! आज्ञा दीजिये, क्या अभिलाषा है १ । १. अपही की ।