पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३९२

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श्रीगणेशाय नमः। श्रीजानकीवल्लभो विजयते श व छ कि त सा द्वितीय सोपान अयोध्याकांड श्लोकाः यस्यां च विभाति भूधरसुता देवापगा सस्तके। भाले बालबिधुर्गले च भरलं यस्यौरसि ब्यालराट् ॥ सोऽयं मृतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा ।। श्रीशः पातु माम् ॥१॥ |शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिः जिनकी गोद में हिमाचल-कन्या पार्वतीजी, मस्तक पर गङ्गाजी, ललाट पर द्वितीया को चन्द्रमा, कंठ में हलाहल विष और छाती पर सर्पराज शेष । सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सदा सब के स्वामी, ( कल्याणरूप, सर्वव्यापक और चन्द्रमा के समान कान्ति वाले श्रीशिवजी मेरी । । रक्षा करें ! से प्रसन्नतां या न गताभितस्तथा लसले वनवासढुःखतः ।। सुखा-बुजश्रीरघुलन्दनस्य से सदाऽस्तु सा अञ्जुलमङ्गलप्रदा | रघुकुल को आनंद देने वाले श्रीरामचन्द्रजी के मुखरूपी कमल की जो शोभा राज्याभिषेक ( की बात ) से न तो प्रसन्नता को प्राप्त हुई और न वनवास । () के दुःख से मलिन ही हुई, वह मेरे लिये सदा सुन्दर मङ्गल की देने वाली हो। ॐ नीलाम्बुजश्यामलोमलाङ्ग' सीताससारोपितवासभागस्। । * पाणौ महासायचारूचाएं नसासि रामं रघुवंशनाथम् ॥३॥