पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३८

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३५ संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वती सिर धुनकर पछताने लगती हैं । बुद्धिमान लोग कवि के हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाती नक्षत्र के समान कहते हैं । जो सरस्वती अच्छे विचाररूपी जल की चर्चा करें, तो कवितारूपी सुन्दर मुक्तामणि उससे उत्पन्न होते हैं।

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहि राम चरित वर ताग। 
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ॥११॥

उन कवितारूपी मोतियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरितरूपी सुन्दर तागे में पिरोकर उस माला को सज्जन लोग अपने शुद्ध हृदय में धारण करते हैं; अत्यन्त प्रेम ही उसकी शोभा है ।

जे जनमे कलिकाल कराला । करतब बायस वेष मराला ।
चलत कुपंथ बेद मग छाँडे । कपट कलेवर कलि मल भाँड़े ॥

इस कराल कलियुग में जो ऐसे जन्मे हैं कि जिनकी करनी कौए के समान और वेष हंस के समान है, जो वेद के मार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पाप के भाँड़े हैं ।

बंचक भगत हाइ राम के । किंकर कंचन कोह काम के ॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी	। धिग धरम ध्वज धंधक धोरी ॥

जो राम के भक्त कहाकर लोगों को ठगते हैं, वास्तव में वे कंचन (सोन), क्रोध और कामदेव के गुलाम हैं। जगत् के ऐसे लोगों में सब से पहले मेरी गिनती है । धर्म की झूठी पताका उड़ाने का धन्धा करने वाले मुझ सरीखे बैल को धिक्कार है ! [ विचित्र अलङ्कार ]

जो अपने अवगुन सब कहऊँ । बाढ़ई कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते में अति अल बखाने ।  थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥

यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ, तो कथा बहुत बढ़ जायगी और मैं पार न पाऊँगा । इसीसे मैंने बहुत कम वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ लेंगे।

समुझि विविध विधि विनती मोरी । कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी ॥
एतेहु पर करिहहिं जे संका । मोहिं ते अधिक ते जड़ मति रंका ॥

१, पात्र, बरतन । २. क्रोध । ३. वैल । ४. संक्षेप में ५. रोष।