रामा राम, रमा राम कोरम 3+रम)+राम रम!राम एमओएम)E+एम ३४ मलय पर्वत के प्रसंग से काष्ठमात्र चंदनीय हो जाता है।
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान। गिरा ग्राम्य सियराम जस गावहैिं सुनहिं सुजान।१०।(२)।
श्यामा गाय काली होती है, पर दूध उबल और अत्यन्त गुणकारी होता है, यही समझ कर सब लोग उसे पीते हैं । उसी तरह बोली गँवारू होने पर भी उसमें सीता राम जी का सुन्दर, उज्ज्वल यश होने से सज्जन उसे गाते और सुनते हैं।
मनि मानिक मुकुता छवि जैसी । अहि गिरि गजसिर सोह न तैसी ॥ नृप किरीट’ तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥
मणि, माणिक्य और मोती की जैसी शोभा है वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर बैसी शोभा नहीं पाते जैसे राजा के मुकुट और नवयौवना स्त्री के शरीर को पाकर वे अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं।
तैसेहि सुकवि कवित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छवि लहहीं ॥ भगति हेतु विधि भवन विहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥
इसी तरह सुकवि की कविता के सम्बन्ध में विद्वान् लोग कहते हैं कि वह पैदा तो और जगह होती है और शोभा और जगह पाती है। कोई कवि जब कविता क़रने बैठता है, तब उसकी भक्ति के कारण सरस्वती देवी कवि के स्मरण करते थे ही ब्रह्मलोक को छोड़कर तुरन्त उसके पास दौड़कर आ जाती है।
राम चरित सर विनु अन्हवांये । सो स्रमु जाइ न कोटि उपाये ॥ कवि कोविद अस हृदयँ बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥
थकी हुई सरस्वती को रामचरितरूपी सरोवर में स्नान कराये बिना उनकी थकांवट करोड़ों उपाय करने पर भी नहीं जाती। कवि और पंडित अपने हृदय में ऐसा विचार कर कलियुग के पापों को हरने वाले हरि के यश का गान करते हैं।
कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगति पछिताना ॥ हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाती सारद कहहिं सुजाना ॥ जौं बरखइ बर बारि विचारू । होहिं कवित मुकुता मनि चारू ॥
१. गाय। २, गँवारू। ३. मुकुट ।