पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३४६

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ॐ बहुत-से विवाह देखे और सुने; पर सव प्रकार से समान साज-समाज और म) बरावरी में पूरे समधी हमने आज ही देखे । ॐ देव गिरा सुनि संदरि साँची % प्रीति अलौकिक दुहुँ दिसि माँची राम देत पाँव अरघु सुहाए ॐ सादर जनकु मंडपहिं ल्याए देवताओं की सुन्दर और सच्ची वाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति राम छा गई । सुन्दर पाँबड़े और अर्घ्य देते हुये जनकजी दशरथजी को आदर-सहित ) * मंडप में ले आये। ए छंद-मंडपु विलोकि विचित्र रचनाँ रुचिरताँ सुनि मन हरे। । निज पानि जलक सुजान सच कहूँ आलि सिंघासन धरे। कुल इष्ट सरिस वसिष्ठ पूजे विनय करि आसिघ लही। । कौसिकहिं पूजत परस प्रीति कि रीति तौ न परै कही ॥ मंडप की विचित्र रचना देखकर उसकी सुन्दरता मुनि के मन को भी शिम) ॐ हरण कर लेती है। बुद्धिमान जनक ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिये राम सिंहासन रक्खा । उन्होंने अपने कुलदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की हैं और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय हो तो परम प्रीति की रीति का वर्णन ही नहीं किया जा सकता। र बामदेव आदिक रिषय पूजे सुदित महीस।। 4 दिए दिव्य आसन सबहिं सब सनलही असीस ३२० राजा ने प्रसन्न मन से वामदेव आदि ऋषियों की पूजा की । सबको उन्होंने दिव्य सिन दिये और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया। राम बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा ॐ जानि ईस सम भाव न दूजा । कीन्हि जोरि कर विनय वड़ाई के कहि निज भाग्य विभव बहुताई | फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथ की पूजा उन्हें ईश (शंकर) के समान वा । जानकर ही की; और कोई दूसरा भाव नहीं था। हाथ जोड़कर उन्होंने विनती एना की और उनके सम्बन्ध से अपने भाग्य और ऐश्वर्य की वृद्धि की सराहना की । में पूजे भूपति सकल वराती ॐ समधी सम सादर सच भाँती के आसन उचित ' दिए सव काहू ॐ कहीं काह मुख एक उछाहू