भाग छोट अभिलाषु बड करउँ एक विस्वास । पइहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास ॥८॥
मेरा भाग्य छोटा और लालसा बहुत बडि है; परन्तु मुझे एक ही भरोसा है कि इसे सुनकर सब सज्जन सुख पायेंगे और् दुर्जन हँसी उडायेंगे ॥८॥
खल परिहास होइ हित मोरा । काक कहहिं कलकंठ कठोरा ॥ हंसहिं बक दादुर चातकही । हँसहिं मलिन खल विमल बतकहिं ॥
दुष्टों की हँसी मेरी भलाई ही होगी । कोयल की मीठी सुरीली बोली को कौवे कठोर ही बतलाया करते हैं । जिस तरह वगले हंसों को ओर मेंढक पपीहों को हँसते हैं, उसी प्रकार मलिन स्वभाव के दुष्ट लोग अच्छी बातों की हँसी उडाते हैं ।
कवित रसिक न राम पद नेहू । तिन कहँ सुखद हास रस एहू ॥ भाषाभनिति भोरि मति मोरी । हँसिवे जोग हँसे नहिं खोरी ॥
जो न तो काव्य-रस के रसिक हैं और् न रामचन्द्रजी के चरणो में प्रिति रखते हैं, उन्हे भी यह कविता हास्य-रस ( हँसने की वस्तु ) होने से आनन्द ही देगी । एक तो यह भाषा की कविता है, दुसरे मेरी बुद्धि भी भोली है, सो हँसने के योग्य है । इससे हँसने मे कोई दोष नहीं है ।
प्रभुपद प्रीति न समुझि नीकी । तिन्हहिं कथा सुनि लागिहि फीकी ॥ हरि हर पद रति मति न कुतरकी । तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की ॥
जिन्हें न प्रभु रामचन्द्रजी के चरणो में प्रीति है और न अच्छी समझ ही है, उन्हें यह कथा सुनकर फीकी लगेगी । जिन्हे हरिहर के चरणो मे प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नही है, उन्ही को श्रीरामचन्द्रजी की यह कथा मीठी लगेगी ।
रामभगति भूषित जिय जानी । सुनहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥ कवि न होउँ नहिं बचन प्रवीनू । सकल कला सब विधा हीनू ॥
सज्जन लोग अपने जी में इस कथा को श्रीरामचन्द्रजी की भक्ति से भूषित जानकर और सुन्दर वाणी से इसकी सराहना करते हुये सुनेंगे । मैं न कवि हूँ, न बोलने में चतुर हूँ; मैं तो सब कलाओ और सारी विद्याओ से भी रहित हूँ ।