पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३१२

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छतिवह आप ही चढ़ गया, तब परशुराम के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ । से जाना राम प्रसाउ तव पुल प्रफुल्लित गात ।। - जोरि पानि बोले वचन हृदयँ ल प्रेलु सात ॥२८४ | तब उन्होंने राम का प्रभाव समझा । उनको शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया । वे हाथ जोड़कर वचन बोले । प्रेम उनके हृदय में अँटता नहीं था। जय रघुवंस बनज' वन भालू ३ गहन दनुज कुल दहन साल जय सुर विप्न धेनु हितकारी ॐ जय मद सोह वह भ्रम हारी । हे रघुकुलरूपी कमल-वन के सूर्य ! अापकी जय हो ! हे राक्षसों के कुलरूपी घने बन को भस्म करने वाले अग्नि ! आपकी जय हो ! हे देवता, ब्राह्मण * और गौ के हित करने बाले ! आपकी जय हो ! हे मद, मोह, क्रोध, और प्रेम के हरण करने बाले ! आपकी जय हो ! राम) विनय सील करुना गुन सागर ॐ जयति बचन रचना अति नागर । सेवक सुखद सुभग सव अंगा ॐ जय सरीर छवि काटि अनंगा । एम) हे विनम्र, शील और गुणों के समुद्र और वचन की रचना में बड़े निपुण ! हैआपकी जय हो ! हे सेवक को सुख देने वाले, सच अङ्गों में सुन्दर र शरीर में सुखो करोड़ों कामदेव की शोभा धारण करने वाले ! आपकी जय हो ! कर काह सुख एक प्रसंसा ॐ जय महेस मन मानस हंसा अनुचित बहुत कहउँ अग्याता ॐ छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता | मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करू ? हे शिवजी के मनरूपी नानसरोवर के हंस ! आपकी जय हो ! मैंने अनजाने में आपको बहुत-से अनुदित वचन कहे। हे क्षमा के मन्दिर ! आप दोनों भाई मुझे क्षमा कीजिये । । कहि जय जय जय रघुकुल केतू ॐ भूगुपति गये बनहिं तप हेतु युवा अपभयँ' कुटिल महीप डेराने $ जहँ तहँ कायर गवहिं पुराने न रघुकुल के पताका-स्वरूप रामचन्द्रजी की जय हे, जय हो, जय हो ! होना ए' कहकर परशुराम तप के लिये बन को चले गये । दुष्ट राजा लोग झाला है। । बहुत डर गये थे, वे डरपोक चुपके से इधर-उधर खिसक गये ।। १. कमल । २. जंगल ! ३. पतुर, निपुण । ४. कल्पित भय ।