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ॐ ३०२ स्व . .. है न कीजिये । यदि यह आपको प्रभाव कुछ भी जानता, तो क्या यह बेसमझ से आपकी बराबरी करता है । ॐ जौं लरिका कछु अचगरि करहीं ॐ गुरु पितु मातु मोद मन भरहीं हैं एम् करिअ कृपा सिसु सेवक जानी ॐ तुम्ह सम सील धीर मुनि ज्ञानी यदि बालक कुछ अनुचित करते हैं, तो भी गुरु, पिता और माता मन में हैं। आनन्द से भर जाते हैं। इससे इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिये। हैं आप तो समदर्शी, सुशील और ज्ञानी मुनि हैं। राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने ॐ कहि कछु लपनु बहुरि मुसुकाने हैं। हँसत देखि नखसिख रिस व्यापी ॐ राम तोर भ्राता वड़ पापी राम के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मण कुछ कहकर फिर राम मुसकुरा दिये । उनको हँसता देखकर परशुराम के सिर से पैर तक क्रोधं व्याप्त हो गया । ( उन्होंने कहा-) हे राम ! तेरा भाई बड़ा पापी है। राम गौर सरीर स्याम मन माहीं ॐ कालकूट मुख पयसुख नाहीं * सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही ॐ नीचे भीषु सम देख न मोही | यह शरीर से गोरा है पर मन में काला है। यह दुधमुंहा नहीं, हलाहल * मुंह वाला है। स्वभाव ही से यह कुटिल है, तेरा अनुसरण नहीं करता। यह नीच मुझे मृत्यु के समान नहीं देखता ।। राम : लषन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल। पाने है ! जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥ | लक्ष्मण ने हँसकर कहा-हे मुनि! सुनिये । क्रोध पाप का मूल है, जिसके म) वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म करते हैं और विश्व-भर के प्रतिकूल चलते हैं। राम) मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया ॐ परिहरि कोषु करिअ अब दाया हूँ राम टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने के बैठिङ्ग होइहिं पाय पिराने हे मुनिराज ! मैं आपकी सेवक हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिये। टूटा हुआ धनुष अब क्रोध करने से नहीं जुड़ेगा। बैठ जाइये, खड़े-खड़े पाँव * दुखने लगे होंगे। १. पैर ।