पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२८२

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18181 | 4: - @छ , २७६ है ॐ अव जनि कोउ माषइ भट मानी छ वीर विहीन मही मैं जानी रामो तजहु आस निज निज गृह जाहू ॐ लिखा न विधि वैदेहि विवाहू अब कोई वीरता का अभिमानी बुरा न माने । मैंने पृथ्वी को बिना वीर रामो की जान लिया। अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ; व्रह्मा ने सीता का पानी के विवाह लिखा ही नहीं है। सुकृत जाइ ज पन परिहॐ ॐ कुइँरि कुआँरि रहड़ का करऊँ * जौ जनतेउँ दिनु भट' भुईं भाई की तौ पन करि होतेउँ न हँसाई ॐ प्रण छोड़ता हूँ, तो पुण्य जाता है; कन्या कुमारी रहे, तो अब क्या ॐ करू १ यदि मैं जानता कि पृथ्वी बिना बीर की है, तो प्रण करके उपहास को पात्र न बनता ।। * जनक बचन सुनि सब नर नारी ॐ देखि जालकिहि भये दुखारी के मापे लखन कुटिल भइँ भौंहें रपट फरकत नयन रिसौ हैं जनकजी की बात सुनकर सब स्त्री-पुरुष जानकी की ओर देखकर खिन्न यम) हुये । परन्तु लक्ष्मण जोश में आये, उनकी भौंहें टेढ़ी हो गईं। ओठ फड़कने राम) लगे और नेत्र क्रोधित हो गये। कहि न सकत रधुबीर डर लगे बचन जलु बाल। - नाइ राम पृट् कमल सिंह बोले गिरा प्रमान ॥२५॥ राम के डर से कुछ कह नहीं सकते हैं, पर जनक के वचन उन्हें वाण की * तरह लगे । फिर भी राम के कमल ऐसे चरणों में सिर नवाकर वे जोरदार वचन राम) बोले---... रघुवंसिन्ह महँ जहँ कोउ होई ॐ तेहिं समाज अस कहइ न कोई हैं। राम कही जनक जसि अनुचित वाली ॐ विद्यमान रघुकुलमलि जानी . रघुवंशियों में जहाँ कहीं कोई होता है, उस समाज में ऐसा कोई कह नहीं ए सकता--जैसे अनुचित वचन रघुकुल के शिरोमणि राम को मौजूद जानते हुये भी जनकजी ने कहे हैं। ए सुनहु भानुकुल पंकज भानू की कहउँ सुभाव न कछु अभिमानू ॐ जौं तुम्हारि अनुसासन पाबौं ॐ कंदुक इव ब्रह्मांड उठावों । १. वीर । २. ठ ।