पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

दश हजार कान मांगे थे) के समान मानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दुसरों की बुराइयां सुनते हैं । फिर मैं उनको इन्द्र के समान मानकर प्रणाम करता हूँ, जैसे इन्द्र को 'सुरानीक' (सुर=देव+अनीक=सेना) अर्थात् देवताओ की सेना प्रिय है, वैसे ही दुष्टों को सदा सुरा (मदिरा) नीक (अच्छी) लगती है । जिनको वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार साँखों से पराये दोषों को देखते हैं ।

दोहा:- उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति । 
जानि पानि जुग जोरि जन विनती करइ सप्रीति ।।४।। 

दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु और मित्र के हित को सुनकर जलते रहते हैं । यह जानकर प्रीतिपूर्वक हाथ जोड़कर यह जन उनसे विनती करता है । [ चतुर्थ तुल्ययोगिता अलंकार ]

में अपनी दिसि कीन्ह निहोरा । तिन्ह निज बोर न लाउव भोरा
बायस पलिअहिं अति अनुरागा । होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ॥

मैंने अपनीओर से ब्‌हुत कुछ विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी न चूकेंगे । कौए को बड़े प्रम से पालिये, परन्तु क्या वे कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं ?

बंदउँ सन्त असज्जन चरना । दुखप्रद उभय वीच कछु बरना ॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं । मिलत एक दुःख दारुन देहीं ॥

अबमैं सजन और दुर्जनदोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ । दोनों दुःखदाई हैं; पर उनमें-कुछ-अन्तर कहागया है । वह अन्तर यह है कि एक (सज्जन) बिछुड़ते हैं, तब प्राण हर लेते हैं, अर्थात् उनके वियोग में मरण का कष्ट होता है अहे एक (दुर्जन) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं । [ उन्मीलित अलंकार । उत्तरार्द्ध मे व्याघात अलंकार । ]

उपजाई एक सङ्ग जग माहीं । जलज जोंक जिमि गुन विलगाहीं ॥
सुधा सुरा सम साघु असाधू । जनक एक जग जलधि अगाधू ॥ 

दोनों (सजन और दुष्ट) एक साथ संसार में पैदा होते है; पर कमल और


१ सेवक, व्यक्ति । २. विनती । ३. चूक ।