पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२१६

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ॐ छंद-सुर मुनि गंधर्वा मिलि करि सब थे विरंचि के लो। | सँग गो तनुधारी भूमि विचारी पश्स विकल सय सोका । ब्रह्मा सब जाना मन अनुसाला सोर कछन वसाई । नि जा झरि नैं दासी सौ अबिनासी हरेउ तोर सहाई॥ । तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्मा के लोक को गये । साथ में गाय का शरीर धारण किये हुये, भय और शोक से व्याकुल वेचारी धरती भी * थी । ब्रह्मा सब जान गये। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का । तब उन्होंने धरती से कहा--जिसकी तू दासी है, वहीं अविनाशी हम दोनों का सहायक है। धनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद खुसिरु। ६ जानत जल की पीर प्रभु जहिं दारून विपति।१८४१ ब्रह्मा ने कहा-हे धरती ! मन में धीरज धरो। हरि के चरणों को स्मरण करो । प्रभु अपने भक्तों की पीड़ा को जानते हैं। वे तुम्हारी कठिन विपत्ति को । नष्ट करेंगे । बैठे सुर सब करहिं विचारा ॐ कहँ पाइअ प्रभु करिथ पुकारा , पुर वैकुंठ जान कह कोई $ कोउ कह पयनिधि वस प्रभु सोई सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि भगवान् को कहाँ पायें और अपनी राजे ॐ पुकार ( फ़र्याद ) सुनायें । कोई बैकुण्ठपुरी जाने को कहता था, कोई कहता था प्रभु तो क्षीर-समुद्र में बसते हैं । जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती ॐ प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहि रीती हैं। तेहि समाज गिरिजा मैं रहेॐ ॐ अवसर पाइ वचन इक कहे । जिसके हृदय में जैसी भक्ति और जैसी प्रीति होती है, प्रभु वहाँ सदा उसी के अनुसार प्रकट होते हैं । हे पार्वती उस समाज में में भी था । अवसर पाकर मैंने एक बात कही-- हरि व्यापक सर्व समाना की प्रेम ते प्रगट होहिं में जाना । को देस काल दिसि - विदिस माहीं ॐ कहहू सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान् सर्वत्र समान रूप से व्यापक हैं। वे