पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१९६

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- तुम्हारा नाम तो प्रतापभानु है। महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे । हे। उम्) राजन् ! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ। पर अपनी हानि समझकर किसी भी | ॐ से कहता नहीं है। राम्रो देखि तात तर सहज सुधाई' ॐ प्रीति प्रतीति नीति निपुलाई उपजि परी ममता मन मोरे ॐ कहउँ कथा निज पूछे तोरें हे तात ! तुम्हारी स्वाभाविक सरलता, प्रीति, विश्वास और नीति-निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे लिये बड़ी प्रीति पैदा हो गई है; अब तुम्हारे पूछने पर मैं अपनी कथा कहता हूँ। अब प्रसन्न में संसय नाहीं ॐ साँगु जो धूप भाव मन माहीं सुनि लुबचन भूपति हराना गहि पद विनय कीन्ह विधि नाना | अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें सन्देह नहीं। हे राजा ! मन में जो अच्छा लगे माँग लो । सुन्दर बचन सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और उसके पैर पकड़कर उसने | राम बहुत प्रकार से विनय किया है। कृपासिंधु मुनि दरसन तोरे ॐ चारि पदार्थ करतल मोरे प्रभुहिं तथापि प्रसन्न विलोकी ॐ माँगि अगम बरु होउँ असोकी हे कृपा के समुद्र मुनि ! आपका दर्शन करने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों फल मेरे हाथ में आ गये । तो भी स्वामी को प्रसन्न देखकर मैं यह दुर्लभ वर माँगकर क्यों न शोक-रहित हो जाऊँ ? हैं जरा मरन ढुख हित तलु समर जितै जनि कोउ।। | एकछत्र रिपुहीनसह राज कलप सत होउ ॥१६४॥ मेरो शरीर वृद्धावस्था और मरण के दुःख से रहित हो जाय । मुझे युद्ध में कोई न जीत सके; और शत्रुओं से हीन पृथ्वी पर सौ कल्प तक मेरा एकछत्र राज हो। कह तापस नृप ऐसेइ होऊ ॐ कारन एक कठिन सुनु सोऊ कालउ तुअ पद नाइहि सीसा की एक विप्रकुल छाँड़ि महीसा मुनि ने कहा--हे राजन् ! ऐसा ही होगा । पर एक कारण कठिन है, उसे १. सीधापन । २. वृद्धावस्था ।