पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१९५

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ॐ १९३ . ८ ६ कुँ जंनि आचरजु करहु मन माहीं ॐ सुत तप ते दुर्लभ कछु नाहीं । तपबल ते जग सृजइ विधाता ॐ तपबल बिष्नु भए परित्राता' राम हे पुत्र ! मन में आश्चर्य मत करो । तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है। तप । राम ही के बल से ब्रह्मा जगत् को रचते हैं; तप ही के बल से विष्णु संसार का पालन एम् तपवल संभु करहिं संवारा ॐ तप ते अगम न कछु संसारा भयेउ नृपहि सुनि अति अनुरागा ॐ कथा पुरातन कहइ सो लागी तप ही के बल से शिव संसार का संहार करते हैं; संसार में कोई वस्तु नहीं है * जो तप से न मिल सके। यह सुनकर राजा को बड़ा प्रेम हुआ। वह ( कपटी है मुनि ) फिर पुरानी कथा कहने लगा। करम धरम इतिहास अनेका ॐ करइ निरूपन बिरत विवेका ॐ उद्भव पालन प्रलय कहानी की कहेसि अमित आचरज बखानी राम) उसने बहुत-से कर्म, धर्म और अनेक प्रकार के इतिहास कह सुनाये तथा तुम ॐ वैराग्य और निवृत्ति-मार्ग की व्याख्या करने लगा। संसार की उत्पत्ति, स्थिति हैं एम) और नाश की कथा उसने बहुत विस्तार से कही। सुनि महीप तापस बस भयऊ ॐ आपन नाम कहन तब लयऊ कह तापस नृप जानउँ तोही ॐ कीन्हेहु कपट लाग भल मोही राजा यह सुनकर उस मुनि के वश में हो गया और तब वह उसे अपना । नाम बताने लगा। मुनि ने कहा-हे राजन् ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने छल किया, वह मुझे बहुत प्रिय लगा। के 3 सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप। णमो 3 मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव। एम |, हे राजन् ! सुनो, ऐसी नीति है कि राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम एम नहीं बतलाया करते । तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुम पर मेरी बड़ी प्रीति | । हो गई। राम नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा ॐ सत्यकेतु तव पिता नरेसा सुरू गुर प्रसाद सब जानिश राजा ॐ कहिअ न आपन जानि अकाजा है। १. रक्षक, पालक । २. ऐसी ।